गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 324

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 11

यह प्रीति का चमत्कार है कि प्रत्यक्ष, जाज्वल्यमान सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायकता भी आवृत हो जाती है, और मधुरिमा प्रस्फुटित हो जाती है। इस माधुर्यानुभूति के ही कारण विप्रयोगजन्य तीव्र संतापादि अनेक भावों की अभिव्यक्ति होती है। जैसे, कवियों द्वारा की गई अनूठी उक्ति द्वारा भाव-विशेष में भी विशिष्ट चमत्कृति आ जाती है, वैसे ही माधुर्य-भावपूर्ण अनुभूतियों के कारण विशिष्ट रसोद्रेक होता है; रसोद्रेक से विभिन्न भावनाओं की चमत्कारपूर्ण अनुभूतियाँ होती हैं। गोपांगनाओं का संताप भी माधुर्य-भाव जन्य रसोद्रेक ही है।

‘नाथ’ शब्द का एक अर्थ उपतापक भी है। ‘नाधृ याच्मोपतापैश्वर्याशीःषु’ गोपांगनाएँ कहती हैं, ‘हे श्यामसुन्दर! आप हमारे उपतापक ही हैं। आप अपने विभिन्न दिवा-कार्य-कलापों द्वारा हमें कष्ट ही पहुँचाते हैं। दिवा-प्रकाश के साथ ही साथ आप गोचारण प्रसंग से स्वेच्छया ही वन प्रांतर में इतस्ततः विहरण करते रहते हैं और हम आपके निरावरण सकोमल पादारविन्दों में वृन्दावन धाम के कुश-काश-श्ज्ञिल-तृणांकुरादि के द्वारा आघात लग जाने की आशंका से अत्यन्त सन्तप्त होती रहती हैं।
‘किमपि वक्तव्यं रात्रौ’ हे श्यामसुन्दर! हम इस रात्रि में अपनी अवस्था का क्या वर्णन करें? इस रात्रि में भी आप हम लोगों से स्वेच्छया अन्तर्धान हो रहे हैं। हम लोगों की दृष्टि के अगोचर रहने हेतु ही आप इस अंधकारमयी रात्रि में इस वनप्रान्तर में अटन कर रहे हैं। एतावता आपके निरावरण सुकोमल चरणारविन्दों में वृन्दावन धाम के कुश-काश-शिल-तृणांकुरादि के गड़ जाने की आशंका भी वृर्द्धिगत होती रहती है; अस्तु, हमारा संताप भी वृर्द्धिगत होता रहता है।

‘यत्ते सुजात चरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताःशनै प्रिय दधीमहि कर्कशेषु
तेनाटवी मटसि तद् व्यथते न किंस्वत्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.3.19

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
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