गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 8सच्चिदानन्दघन भगवद्-स्वरूप-साक्षात्कार से ही माया-निवृत्ति सम्भव है। वल्लभाचार्यजी की कारिका हैः- ‘हस्तेन च स्वरूपेण यदा चोपकतिर्मता। अर्थात, हे मदनमोहन! आप सर्वतोभावेन हमारा संरक्षण करें। श्रीकरग्रहं नः शिरसि घेहि’ हमारे शिर पर अपना श्रीकर विन्यास करें; ‘जलरूहाननं चारु दर्शय’ हमको स्वरूप दर्शन दें; ‘पदाम्बजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्’ हमारे उरस्थल में अपने पादारचिह्न को धारण कर हमारी हृच्छयाग्नि का शमन करें। हे सखे! अपने अधर-सुखा को पिला कर हमारा उपकार करना ही आपका परम कर्तव्य है। श्री वल्लभाचार्यजी की ही एक और कारिका हैः- ‘प्रायुक्तमपि तत्सर्व यावत् स्पष्टं न भासते। अर्थात, जब तक ‘उपकार हुआ’ ऐसी अनुभूति नहीं होती तब तक वस्तु में सरसता नहीं आती। वस्तु में सरसता लाने की दृष्टि से भी स्पष्ट वर्णन आवश्यक हैं जैसे किसी की मूर्च्छा-निवारण हेतु मंत्र-पाठ, शीतल सन्निधापन द्वारा तापापनोदन एवं अमृत पान वांछित होता है, वैसे ही इन कृष्णानुरागी, कृष्ण प्रेमोन्मादिनी गोपिकाओं की मूर्च्छा-निवारण के लिए सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रीकृष्ण का स्वरूप दर्शन, एवं उनकी मधुरा वाणी श्रवण अनिवार्य है। मोह का, जो माया का ही रूपान्तर है, एकमात्र निवर्तक श्रीकृष्ण ही है। भगवान की मधुरा वाणीज्ञानदायिनी है, ज्ञान से मोह की निवृत्ति स्वाभाविक है, भगवत्-दर्शन से ही जीव की मूर्च्छा, मोह-निवृत्ति सम्भव है। ‘वल्गु वाक्यया, वल्गूनि मनोहराणि वाक्यानि यस्याम् तया’ मनोहर वाक्य से युक्त मधुरा वाणी ही ‘मधुरगिरा वल्गुवाक्या’ है। ‘अथस्य प्रियत्वादिना’ जिस वाणी का अर्थ प्रिय हो, शब्द सुन्दर हो, वर्ण-बन्धु सुसंगत हो तथा उत्तम स्वर हो वह मधुरा गिरा वल्गु वाक्या है। |