गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 96

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण


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शान्तनु के पिता राजा प्रतीप थे। प्रतीप ने गंगा तट पर कई वर्षों तक कठिन तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर गंगा एक अत्यन्त रूपवती स्त्री का रूप धारण कर प्रतीप की दाहिनी जंघा पर बैठ गई और उसे अपनी पत्नी बना लेने का अनुरोध किया। गंगा की इस प्रार्थना को अनुचित व नियम विरुद्ध बताते हुए प्रतीप ने कहा कि “पुरुष की दाहिनी जंघा पुत्र, कन्या अथवा पुत्र-वधू के बैठने की होती है और तुम दाहिनी जंघा पर बैठी हो चूँकि इस कारण नीति के अनुसार मैं तुमको पुत्र-वधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूँ।”

गंगा ने प्रतीप की पुत्र-वधू बनना स्वीकार कर लिया और यह प्रस्ताव रक्खा कि जो कुछ वह करेगी उसमें तथा उसके किसी भी कार्य में तुम्हारा पुत्र बाधा नहीं डालेगा और न अप्रिय एवं कटु वचन कहेगा। उसके कार्य में बाधा डालने या कटु वचन कहने पर वह उसे छोड़कर चली जायेगी।

राजा महाभिष को जो शाप ब्रह्मा ने उपासना-उत्सव के समय मृत्युलोक में जन्म लेने का दिया था, उसी शाप के फलस्वरूप महाभिष ने शान्तनु के रूप में राजा प्रतीप के यहाँ जन्म लिया था और गंगा ने भी जो वचन वसुओं को दिया था, उसके अनुसार उसने प्रतीप के पुत्र शान्तनु से विवाह करना स्वीकार कर लिया था।[1]

जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, गंगा के शान्तनु से क्रम से पुत्र उत्पन्न होते गये। सात पुत्रों को वसुओं के अनुरोधानुसार गंगा ने जल में डुबो दिया। गंगा के इस पुत्र-हत्या रूपी अमानुषी आचरण से यद्यपि शान्तनु दुःखी था किन्तु वचन-बद्ध होने के कारण कुछ कह नहीं सकता था अन्त में जब गंगा के आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ तो शान्तनु से न रहा गया और इस पुत्र को न मारने का अनुरोध गंगा से किया। इस पर गंगा अपने वचनानुसार शान्तनु को छोड़कर चली गई और अपने इस पुत्र को भी अपने साथ ही ले गयी।

यह आठवाँ पुत्र वसुओं के अष्टाँश तत्त्वों से उत्पन्न हुआ था और जिसको जीवित रखने के लिये गंगा ने वसुओं से कह दिया था। इस पुत्र का नाम “देवव्रत” रक्खा गया जो गांगेय तथा भीष्म पितामह के नाम से विख्यात है। “द्यौ” नाम के वसु ने यह जन्म भीष्म के रूप में भागीरथी गंगा के गर्भ से ही लिया था।

माता गंगा ने अपने इस पुत्र को महर्षि वशिष्ठ से समस्त वेदों का अध्ययन कराया, असुरों के गुरु उशना से, अंगिरा के पुत्र बृहस्पति से तथा ऋषि जमदग्नि के प्रतापी पुत्र परशुराम से समस्त अस्त्र-शस्त्र विद्या सांगोपांग सिखाकर सर्व प्रकार से दश व प्रवीण कर दिया।

इस प्रकार जब छत्तीस वर्ष का समय व्यतीत हो गया, एक दिन राजा शान्तनु मृगयार्थ गंगा तट पर विहार कर रहे थे तो उन्होंने वहाँ एक युवक बालक को बाणों के द्वारा गंगा के प्रवाह को रोकने का प्रयास करते देखा। यह बालक देवव्रत शान्तनु का ही पुत्र था, किन्तु शान्तनु से पहचान न सके क्योंकि जन्म के पश्चात् उन्होंने उसे कभी नहीं देखा था। उसी समय वहाँ गंगा ने प्रकट होकर बताया कि वह बालक उनका ही पुत्र है, इसे वेदों में तथा शत्र-विद्या में निपुण कर दिया है अब इसे वह अपने साथ ले जा सकते हैं। इस प्रकार शान्तनु भागीरथी गंगा से उत्पन्न देवव्रत पुत्र को अपने साथ पुरन्दर पुरी में ले आये और देवव्रत को युवराज बना दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1. पौराणिक गाथाओं में गंगा को भागीरथी, जाह्नवी आदि नामों से सम्बन्धित करके इसे गंगा नदी माना गया है और स्त्री के रूप में वर्णित किया गया है। इसके विपरीत शान्तनु, भीष्म पितामह, कौरव आदि निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। अतः एक ऐतिहासिक व्यक्ति (शान्तनु) का एक नदी को देवी के रूप में भी कल्पित कर, विवाह कराकर सन्तानोत्पत्ति करने का वर्णन ऐतिहासिक तथ्य को पौराणिक गाथा से सम्बन्धित करना, विरोधात्मक प्रतीत होता है और बुद्धि गाह्य भी नहीं रहता। महाभारत में “गंगा” का नाम ही दिया है भागीरथी या जाह्नवी नाम नहीं है। परम्परागत रूढ़ि से गंगा को भागीरथी या जाह्नीव कहने की प्रणाली हो जाना भी सम्भव है। पवित्रता, शुद्धता, निर्मलता, साध्विता आदि गुणों के कारण अब भी कहा जाता है कि “वह तो गंगा है” या “गंगा का नीर है” अतः इतिहास की श्रृंखला को स्थिर रखने के लिये पौराणिक गाथा को अपने स्थान पर यथावत् सुरक्षित रखकर गंगा को ऐतिहासिक दृष्टि से एक सामान्य स्त्री ही मानकर उसका विवाह शान्तनु से होना, समझने से इतिहास एवं परम्परा की रक्षा होती है।

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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
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13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
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18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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