गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
आत्म-संयम-योग
संन्यासीः-कर्म-फल न चाहता हुआ जो अपने करणीय-कर्म करता है उस व्यक्ति को भगवान कृष्ण ने “संन्यासी” कहा है। जो कर्म फल की इच्छा से किया जाता है उस कर्म को भगवान कर्म नहीं मानते क्योंकि जो कर्म फलेच्छा के कारण किया है वह सत् कर्म नहीं होता दूषित कर्म होता है। यदि फलेच्छा को कर्म के बाहर निकाल दिया जाए तो कर्म का दूषित-तत्त्व कर्म में नहीं रहेगा और केवल शुद्ध सत् कर्म ही शेष रह जाएगा। कृष्ण का कहना है कि घर-गृहस्थ को छोड़कर एकान्त निर्जन वन में रहने पर भी यदि किसी मनुष्य की वासनाएँ, कामनाएँ, कर्म फल इच्छाएँ नहीं मिटती तो वह व्यक्ति[1] गृहस्थ ही है संन्यासी नहीं है। इसके विपरीत यदि कोई गृहस्थ गार्हस्थ्य में रहकर या संसार में रहकर भी वासना, कामना व फलेच्छा का त्याग कर देता है तो वह घर में रहता हुआ या संसार में रहता भी “संन्यासी” ही है। अतः निराकाक्षी अनहंकारी को संन्यासी कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज