गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 507

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-6
आत्म-संयम-योग
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श्रीभगवान् उचाव-

अनाश्रित: कर्मफलं
कार्यं कर्म करोति य: ।
स सन्न्यासी च योगी च
न निरग्निर्न चाक्रिय: ॥1॥

भगवान कृष्ण ने कहा-

कर्म-फलाश्रित न होकर जो
करणीय कर्म ही करता है।
होता योगी वह संन्यासी वो[1]
अक्रिय निरग्नि[2] न कुछ भी है।।

संन्यासीः-

कर्म-फल न चाहता हुआ जो अपने करणीय-कर्म करता है उस व्यक्ति को भगवान कृष्ण ने “संन्यासी” कहा है। जो कर्म फल की इच्छा से किया जाता है उस कर्म को भगवान कर्म नहीं मानते क्योंकि जो कर्म फलेच्छा के कारण किया है वह सत् कर्म नहीं होता दूषित कर्म होता है। यदि फलेच्छा को कर्म के बाहर निकाल दिया जाए तो कर्म का दूषित-तत्त्व कर्म में नहीं रहेगा और केवल शुद्ध सत् कर्म ही शेष रह जाएगा। कृष्ण का कहना है कि घर-गृहस्थ को छोड़कर एकान्त निर्जन वन में रहने पर भी यदि किसी मनुष्य की वासनाएँ, कामनाएँ, कर्म फल इच्छाएँ नहीं मिटती तो वह व्यक्ति[1] गृहस्थ ही है संन्यासी नहीं है। इसके विपरीत यदि कोई गृहस्थ गार्हस्थ्य में रहकर या संसार में रहकर भी वासना, कामना व फलेच्छा का त्याग कर देता है तो वह घर में रहता हुआ या संसार में रहता भी “संन्यासी” ही है। अतः निराकाक्षी अनहंकारी को संन्यासी कहा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृष्ण के मत में

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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