गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 370

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-4
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
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श्रीभगवान उवाच-

(1)
इमं विवस्वते योगं
प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह
मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।

(1)
इस अव्वय[1] कर्म-योग को
कहा मैंने ही विवस्वान[2] को।
विवस्वान ने कहा मनु[3] को
कहा मनु ने फिर इक्ष्वाकु[4] को।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कभी भी क्षीण न होने वाला
  2. सूर्य
    नोट-
    विवस्वानः- मूल में “इदं विवस्वते योगं” व “विवस्वान्मनवे प्राह” यह वाक्य हैं। इसमें विवस्वान का अर्थ गीता की टीकाओं में “सूर्य” किया गया है। इससे इसका अर्थ यह होता है कि, “मैंने इस अव्यय योग को सूर्य के प्रति कहा था, और सूर्य ने फिर मनु को कहा”। इसके आगे दूसरे ही श्लोक में इस कर्म योग के विषय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि इस योग को राजर्षि जानते रहे हैं (रजर्षयो विदुः) अतः विवस्वान, मनु, इक्ष्वाकु आदि का विशेषण राजर्षि शब्द है। यह समस्त राजा राजर्षि थे और ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष थे जिनका उल्लेख महाभारत महाकाव्य के आदि पर्व में पुरुवंश की वंशावली में है और श्रीमद्भागवत में भी इन राजर्षियों का वर्णन है। अनासक्त-कर्म-योगाभ्यासी यह मुमुक्षु राजा पुरुवंशियों के पूर्वज थे जैसेा कि इस ही अध्याय के श्लोक 15 में यह कहकर कि “कर्म तू भी कर वैसे ही, किए पूर्वजों ने जो पार्थ” उपदिष्ट किया गया है। अध्याय 3 श्लोक 20 में भी इस योग की परम्परा बतलाते हुए जनकादिक राजर्षियों का उदाहरण दिया है। यह समस्त राजा लोग ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष थे जिनको राजर्षि व पूर्वज कहा गया है और अनासक्त-कर्म-योग की परम्परागत श्रृंखला को ही यहाँ अक्षुण्ण रखा गया है जो विवस्वान को सूर्य कहने से भंग व खण्डित जो जाती है। फिर इसके आगे श्लोक 4 में जो आपत्ति अर्जुन ने प्रगट की है उसने कहा है कि “हमारे पूर्वज विवस्वान तो हजारों वर्ष पहले सतयुग में हुए हैं और आपका जन्म अभी का इस द्वापर के अन्त का है फिर यह समझ में नहीं बैठता कि हमारे आदि के पूर्वजों को यह कर्म-योग आपे बताया।” अर्जुन की यह शंका ऐतिहासिक दृष्टिकोण के अनुसार ही थी जो यथार्थ, अभ्रान्त तथा युक्ति संगत थी। अतः यह विचारणीय है कि विवस्वान का अर्थ सूर्य करके उसको ऐतिहासिक कड़ी से पृथक् कर दिया जावे या वंशावली की श्रृंखला को यथावत रक्खी जावे।
  3. मनुस्मृति धर्म-शास्त्र के प्रणेता ब्रह्म के मानस पुत्र
  4. अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं के पुरखा प्रथम सूर्यवंशी राजा मनु के पुत्र

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5. कर्म-संन्यास योग 474
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अंतिम पृष्ठ 1142

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