कृतवर्मा सहित समस्त यादवों का परस्पर संहार

महाभारत मौसल पर्व के अंतर्गत तीसरे अध्याय में वैशम्पायन जी ने समस्त यादवों का प्रभास तीर्थ जाने तथा कृतवर्मा सहित समस्त यादवों का परस्पर संहार करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

समस्त यादवों का प्रभासक्षेत्र में जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! द्वारका के लोग रात को स्वप्नों में देखते थे कि एक काले रंग की स्‍त्री अपने सफेद दाँतों को दिखा-दिखाकर हँसती हुई आयी है और घरों में प्रवेश करके स्त्रियों का सौभाग्य-चिह्न लूटती हुई सारी द्वारका में दौड़ लगा रही है। अग्निहोत्र गृहों में जिनके मध्य भाग में वास्तु की पूजा-प्रतिष्ठा हुई है, ऐसे घरों में भयंकर गृध्र आकर वृष्णि और अन्धक वंश के मनुष्यों को पकड़-पकड़कर खा रहे हैं। यह भी स्वप्न में दिखायी देता था। अत्यन्त भयानक राक्षस उनके आभूषण, छत्र, ध्वजा और कवच चुराकर भागते देखे जाते थे। जिसकी नाभि में वज्र लगा हुआ था जो सब-का-सब लोहे का ही बना था, वह अग्नि देव का दिया हुआ श्री विष्णु का चक्र वृष्णि वंशियों के देखते-देखते दिव्यलोक में चला गया। भगवान का जो सूर्य के समान तेजस्वी और जुता हुआ दिव्य रथ था, उसे दारुक के देखते-देखते घोड़े उड़ा ले गये। वे मन के समान वेगशाली चारों श्रेष्ठ घोड़े समुद्र के जल के ऊपर-ऊपर से चले गये। बलराम और श्रीकृष्ण जिनकी सदा पूजा करते थे, उन ताल और गरुड़ के चिह्न से युक्त दोनों विशाल ध्वजों को अप्सराएँ ऊँचे उठा ले गयीं और दिन-रात लोगों से यह बात कहने लगीं कि ‘अब तुम लोग तीर्थ-यात्रा के लिये निकलो।'

तदनन्तर पुरुषश्रेष्ठ वृष्णि और अन्धक महारथियों ने अपनी स्त्रियों के साथ उस समय तीर्थ यात्रा करने का विचार किया। अब उन में द्वारका छोड़ कर अन्यत्र जाने की इच्छा हो गयी थी। तब अन्धकों और वृष्णियों ने नाना प्रकार के भक्ष्य, भोजन, पेय, मद्य और भाँति-भाँति के मांस तैयार कराये। इसके बाद सैनिकों के समुदाय, जो शोभासम्पन्न और प्रचण्ड तेजस्वी थे, रथ, घोड़े और हाथियों पर सवार होकर नगर के बाहर निकले। उस समय स्त्रियों सहित समस्त यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में पहुँचकर अपने-अपने अनुकूल घरों में ठहर गये। उन के साथ खाने-पीने की बहुत-सी सामग्री थी। परमार्थ ज्ञान में कुशल और योगवेत्ता उद्धव जी ने देखा कि समस्त वीर यदुवंशी समुद्र तट पर डेरा डाले बैठे हैं। तब वे उन सबसे पूछकर विदा लेकर वहाँ से चल दिये। महात्मा उद्धव भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करके जब वहाँ से प्रस्थित हुए तब श्रीकृष्ण ने उन्हें वहाँ रोकने की इच्छा नहीं की; क्योंकि वे जानते थे कि यहाँ ठहरे हुए वृष्णि वंशियों का विनाश होने वाला है। काल से घिरे हुए वृष्णि और अन्धक महारथियों ने देखा कि उद्धव अपने तेज से पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके यहाँ से चले जा रहे हैं।[1]

कृतवर्मा और सात्यकि में विवाद

उन महामनस्वी यादवों के यहाँ ब्राह्मणों को जिमाने के लिये जो अन्न तैयार किया गया था उसमें मदिरा मिलाकर उसकी गन्ध से युक्त हुए उस भोजन को उन्होंने वानरों को बाँट दिया। तदनन्तर वहाँ सैकड़ों प्रकार के बाजे बजने लगे। सब ओर नटों और नर्तकों का नृत्य होने लगा। इस प्रकार प्रभास क्षेत्र में प्रचण्ड तेजस्वी यादवों का वह महापान आरम्भ हुआ। श्रीकृष्ण के पास ही कृतवर्मा सहित बलराम, सात्यकि, गद और बभ्रु पीने लगे।[1] पीते-पीते सात्यकि मद से उन्मत्त हो उठे और यादवों की उस सभा में कृतवर्मा का उपहास तथा अपमान करते हुए इस प्रकार बोले- ‘हार्दिक्य! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा क्षत्रिय होगा जो अपने ऊपर आघात न होते हुए भी रात में मुर्दों के समान अचेत पड़े हुए मनुष्यों की हत्या करेगा। तूने जो अन्याय किया है उसे यदुवंशी कभी क्षमा नहीं करेंगे।' सात्यकि के ऐसा कहने पर रथियों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ने कृतवर्मा का तिरस्कार करके सात्यकि के उपर्युक्त वचन की प्रशंसा एवं अनुमोदन किया।

यह सुनकर कृतवर्मा अत्यन्त कुपित हो उठा और बायें हाथ से अंगुलि का इशारा करके सात्यकि का अपमान करता हुआ बोला- ‘अरे! युद्ध में भूरिश्रवा की बाँह कट गयी थी और वे मरणान्त उपवास का निश्चय करके पृथ्वी पर बैठ गये थे, उस अवस्था में तूने वीर कहलाकर भी उनकी क्रूरतापूर्ण हत्या क्यों की?।' कृतवर्मा की यह बात सुनकर शत्रु वीरों का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया। उन्होंने रोषपूर्ण टेढ़ी दृष्टि से उसकी ओर देखा। उस समय सात्यकि ने मधुसूदन को सत्राजित के पास जो स्यमन्तक मणि थी उसकी कथा कह सुनायी (अर्थात यह बताया कि कृतवर्मा ने ही मणि के लोभ से सत्राजित का वध करवाया था)। यह सुनकर सत्यभामा के क्रोध की सीमा न रही। वह श्रीकृष्ण का क्रोध बढ़ाती और रोती हुई उनके अंक में चली गयी। तब क्रोध में भरे हुए सात्यकि उठे और इस प्रकार बोले- ‘सुमध्यमे! यह देखो, मैं द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के, धृष्टद्युम्न के और शिखण्डी के मार्ग पर चलता हूँ अर्थात उनके मारने का बदला लेता हूँ और सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि जिस पापी दुरात्मा कृतवर्मा ने द्रोणपुत्र का सहायक बनकर रात में सोते समय उन वीरों का वध किया था आज उसकी भी आयु और यश का अन्त हो गया।'[2]

समस्त यादवों का परस्पर संहार करना

ऐसा कहकर कुपित हुए सात्यकि ने श्रीकृष्ण के पास से दौड़कर तलवार से कृतवर्मा का सिर काट लिया। फिर वे दूसरे-दूसरे लोगों का भी सब ओर घूमकर वध करने लगे। यह देख भगवान श्रीकृष्ण उन्हें रोकने के लिये दौड़े। महाराज! इतने ही में काल की प्रेरणा से भोज और अन्धक वंश के समस्त वीरों ने एक मत होकर सात्यकि को चारों ओर से घेर लिया। उन्हें कुपित होकर तुरंत धावा करते देख महातेजस्वी श्रीकृष्ण काल के उलट-फेर को जानने के कारण कुपित नहीं हुए। वे सब-के-सब मदिरापान जनित मद के आवेश से उन्मत्त हो उठे थे। इधर कालधर्मा मृत्यु भी उन्हें प्रेरित कर रही थी। इसलिये वे जूठे बरतनों से सात्यकि पर आघात करने लगे। जब सात्यकि इस प्रकार मारे जाने लगे तब क्रोध में भरे हुए रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न उन्हें संकट से बचाने के लिये स्वयं उनके और आक्रमणकारियों के बीच में कूद पड़े। प्रद्युम्न भोजों से भिड़ गये और सात्यकि अन्धकों के साथ जूझने लगे। अपनी भुजाओं के बल से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर बड़े परिश्रम के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। परंतु विपक्षियों की संख्या बहुत अधिक थी; इसलिये वे दोनों श्रीकृष्ण के देखते-देखते उनके हाथ से मार डाले गये। सात्यकि तथा अपने पुत्र को मारा गया देख यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कुपित होकर एक मुट्ठी एरका उखाड़ ली।[2]

उनके हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गयी। फिर तो जो-जो सामने आये उन सब को श्रीकृष्ण ने उसी से मार गिराया। उस समय काल से प्रेरित हुए अन्धक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के लोगों ने उस भीषण मार काट में उन्हीं मूसलों से एक-दूसरे को मारना आरम्भ किया। नरेश्वर! उनमें से जो कोई भी क्रोध में आकर एरका नामक घास लेता, उसी के हाथ में वह वज्र के समान दिखायी देने लगती थी। पृथ्वीनाथ! एक साधारण तिनका भी मूसल होकर दिखायी देता था; यह सब ब्राह्मणों के शाप का ही प्रभाव समझो। राजन! वे जिस किसी भी तृण का प्रहार करते वह अभेद्य वस्तु का भी भेदन कर डालता था और वज्रमय मूसल के समान सुदृढ़ दिखायी देता था। भरत नन्दन! उस मूसल से पिता ने पुत्र और पुत्र ने पिता को मार डाला। जैसे पतंगे आग में कूद पड़ते हैं, उसी प्रकार कुकुर और अन्धक वंश के लोग परस्पर जूझते हुए एक दूसरे पर मतवाले होकर टूटते थे। वहाँ मारे जाने वाले किसी योद्धा के मन में वहाँ से भाग जाने का विचार नहीं होता था।

काल चक्र के इस परिवर्तन को जानते हुए महाबाहु मधुसूदन वहाँ चुपचाप सब कुछ देखते रहे और मूसल का सहारा लेकर खड़े रहे। भारत! श्रीकृष्ण ने जब अपने पुत्र साम्ब, चारूदेष्ण और प्रद्युम्न को तथा पोते अनिरुद्ध को भी मारा गया देखा तब उनकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठी। अपने छोटे भाई गद को रणशैय्या पर पड़ा देख वे अत्यन्त रोष से आगबबूला हो उठे; फिर तो शारंग धनुष, चक्र और गदा धारण करने वाले श्रीकृष्ण ने उस समय शेष बचे हुए समस्त यादवों का संहार कर डाला। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले महातेजस्वी बभ्रु और दारुक ने उस समय यादवों का संहार करते हुए श्रीकृष्ण से जो कुछ कहा, उसे सुनो। ‘भगवान! अब सबका विनाश हो गया। इनमें से अधिकांश तो आप के हाथों मारे गये हैं। अब बलराम जी का पता लगाइये। अब हम तीनों उधर ही चलें, जिधर बलराम जी गये हैं।'[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत मौसल पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत मौसल पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-35
  3. महाभारत मौसल पर्व अध्याय 3 श्लोक 36-47

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