श्रीकृष्ण द्वारा यदुवंशियों को तीर्थयात्रा का आदेश

महाभारत मौसल पर्व के अंतर्गत दूसरे अध्याय में वैशम्पायन जी ने द्वारका में भयंकर उत्पात को देखकर भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा यदुवंशियों को तीर्थयात्रा के लिये आदेश देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

द्वारका में उत्पातों का होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार वृष्णि और अन्धक वंश के लोग अपने ऊपर आने वाले संकट का निवारण करने के लिये भाँति-भाँति के प्रयत्न कर रहे थे और उधर काल प्रतिदिन सब के घरों में चक्कर लगाया करता था। उसका स्वरूप विकराल और वेश विकट था। उस के शरीर का रंग काला और पीला था। वह मूँड़ मुड़ाये हुए पुरुष के रूप में वृष्णि वंशियों के घरों में प्रवेश करके सब को देखता और कभी-कभी अदृश्य हो जाता था। उसे देखने पर बड़े-बड़े धनुर्धर वीर उस के ऊपर लाखों बाणों का प्रहार करते थे; पंरतु सम्पूर्ण भूतों का विनाश करने वाले उस काल को वे वेध नहीं पाते थे। अब प्रतिदिन अनेक बार भयंकर आँधी उठने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। उससे वृष्णियों और अन्धकों के विनाश की सूचना मिल रही थी। चूहे इतने बढ़ गये थे कि वे सड़कों पर छाये रहते थे। मिट्टी के बरतनों में छेद कर देते थे तथा रात में सोये हुए मनुष्यों के केश और नख कुतरकर खा जाया करते थे। वृष्णिवंशियों के घरों में मैनाएँ दिन-रात चें-चें किया करती थीं। उनकी आवाज़ कभी एक क्षण के लिये भी बंद नहीं होती थी। भारत! सारस, उल्लुओं की, बकरे, गीदड़ों की बोली की नकल करने लगे। काल की प्रेरणा से वृष्णियों और अन्धकों के घरों में सफ़ेद पंख और लाल पैरों वाले कबूतर घूमने लगे।

गौओं के पेट से गदहे, खच्चरियों से हाथी, कुतियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उन दिनों वृष्णिवंशी खुल्लमखुल्ला पाप करते और उसके लिये लज्जित नहीं होते थे। वे ब्राह्मणों, देवताओं और पितरों से भी द्वेष रखने लगे। इतना ही नहीं, वे गुरुजनों का भी अपमान करते थे। केवल बलराम और श्रीकृष्ण का ही तिरस्कार नहीं करते थे। पत्नियाँ पतियों को और पति अपनी पत्नियों को धोखा देने लगे। अग्नि देव प्रज्वलित होकर अपनी लपटों को वामावर्त घुमाते थे। उनसे कभी नीले रंग की, कभी रक्त वर्ण की और कभी मजीठ के रंग की पृथक-पृथक लपटें निकलती थीं। उस नगरी में रहने वाले लोगों को उदय और अस्त के समय सूर्य देव प्रतिदिन बारंबार कबन्धों से घिरे दिखायी देते थे। अच्छी तरह छौंक-बघार कर जो रसोइयाँ तैयार की जाती थीं, उन्हें परोसकर जब लोग भोजन के लिये बैठते थे तब उनमें हज़ारों कीड़े दिखायी देने लगते थे। जब पुण्याह वाचन किया जाता और महात्मा पुरुष जप करने लगते थे, उस समय कुछ लोगों के दौड़ने की आवाज़ सुनायी देती थी परंतु कोई दिखायी नहीं देता था। सब लोग बारंबार यह देखते थे कि नक्षत्र आपस में तथा ग्रहों के साथ भी टकरा जाते हैं परन्तु कोई भी किसी तरह अपने नक्षत्र को नहीं देख पाता था। जब भगवान श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य शंख बजता था, तब वृष्णियों और अन्धकों के घर के आस-पास चारों ओर भयंकर स्वर वाले गदहे रेंकने लगते थे।[1]

कृष्ण का यादवों को तीर्थयात्रा आदेश देना

इस तरह काल का उलट-फेर प्राप्त हुआ देख और त्रयोदशी तिथि को अमावस्या का संयोग जान भगवान श्रीकृष्‍ण ने सब लोगों से कहा- ‘वीरो! इस समय राहु ने फिर चतुर्दशी को ही अमावस्या बना दिया है। महाभारत युद्ध के समय जैसा योग था वैसा ही आज भी है। यह सब हम लोगों के विनाश का सूचक है।' इस प्रकार समय का विचार करते हुए केशिहन्ता श्रीकृष्ण ने जब उसका विशेष चिन्तन किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि महाभारत युद्ध के बाद यह छत्तीसवाँ वर्ष आ पहुँचा। वे बोले- ‘बन्धु-बान्धवों के मारे जाने पर पुत्र शोक से संतप्त हुई गान्धारी देवी ने अत्यन्त व्यथित होकर हमारे कुल के लिये जो शाप दिया था उसके सफल होने का यह समय आ गया है। पूर्वकाल में कौरव-पाण्डवों की सेनाएँ जब व्यूहबद्ध होकर आमने-सामने खड़ी हुई, उस समय भयानक उत्पातों को देखकर युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा था, वैसा ही लक्षण इस समय भी उपस्थित है।' ऐसा कहकर शत्रुदमन भगवान श्रीकृष्ण ने गान्धारी के उस कथन को सत्य करने की इच्छा से यदुवंशियों को उस समय तीर्थयात्रा के लिये आज्ञा दी। भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से राजकीय पुरुषों ने उस पुरी में यह घोषणा कर दी कि ‘पुरुष प्रवर यादवों! तुम्हें समुद्र में ही तीर्थ यात्रा के लिये चलना चाहिये अर्थात सबको प्रभास क्षेत्र में उपस्थित होना चाहिये।'[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत मौसल पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-17
  2. महाभारत मौसल पर्व अध्याय 2 श्लोक 18-24

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