- महाभारत मौसल पर्व के अंतर्गत सातवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने अर्जुन के द्वारका से जाते समय समुद्र का द्वारका को डुबोने तथा मार्ग में अर्जुन पर डाकुओं द्वारा आक्रमण करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
समुद्र का द्वारका को डूबोना
वैशम्पायन जी बोले- उस जन समुदाय के निकलते ही मगरों और घड़ियालों के निवास स्थान समुद्र ने रत्नों से भरी-पूरी द्वारका नगरी को जल से डूबो दिया। पुरुषसिंह अर्जुन ने उस नगर का जो-जो भाग छोड़ा, उसे समुद्र ने अपने जल से अप्लावित कर दिया। यह अद्भुत दृश्य देखकर द्वारकावासी मनुष्य बड़ी तेजी से चलने लगे। उस समय उनके मुख से बारंबार यही निकलता था कि 'दैवकी लीला विचित्र है'।[1]
अर्जुन पर डाकुओं का आक्रमण
अर्जुन रमणीय काननों, पर्वतों और नदियों के तट पर निवास करते हुए वृष्णि वंश की स्त्रियों को ले जा रहे थे। चलते-चलते बुद्धिमान एवं सामर्थ्यशाली अर्जुन ने अत्यन्त समृद्धिशाली पंचनद देश में पहुँचकर जो गौ, पशु तथा धन-धान्य से सम्पन्न था, ऐसे प्रदेश में पड़ाव डाला। भरतनन्दन! एक मात्र अर्जुन के संरक्षण में ले जायी जाती हुई इतनी अनाथ स्त्रियों को देखकर वहाँ रहने-वाले लुटेरों के मन में लोभ पैदा हुआ। लोभ से उनके चित्त की विवेक शक्ति नष्ट हो गयी। उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की। भाइयों! देखो, यह अकेला धनुर्धर अर्जुन और ये हतोत्साह सैनिक हम लोगों को लांघकर वृद्धों और बालकों के इस अनाथ समुदाय को लिये जा रहे हैं। (अत: इन पर आक्रमण करना चाहिये)। ऐसा निश्चय करके लूट का माल उडाने वाले वे लट्ठधारी लुटेरे वृष्णिवंशियों के उस समुदाय पर हज़ारों की संख्या में टूट पड़े। समय के उलट फेर से प्रेरणा पाकर वे लुटेरे उन सबके वध के लिये उतारू हो अपने महान सिंहनाद से साधारण लोगों को डराते हुए उनकी ओर दौडे़। आक्रमणकारियों को पीछे की ओर से धावा करते देख कुन्तीकुमार महाबाहु अर्जुन सेवकों सहित सहसा लौट पड़े और उनसे हंसते हुए-से बोले- 'धर्म को न जानने वाले पापियों! यदि जीवित रहना चाहते हो तो लौट जाओ; नहीं तो मेरे द्वारा मारे जाकर या मेरे बाणों से विदीर्ण होकर इस समय तुम बड़े शोक में पड़ जाओगे। वीरवर अर्जुन के ऐसा कहने पर उनकी बातों की अवहेलना करके वे मूर्ख अहीर उनके बारंबार मना करने पर भी उस जन समुदाय पर टूट पड़े। तब अर्जुन ने अपने दिव्य एवं कभी जीर्ण न होने वाले विशाल धनुष गाण्डीव को चढ़ाना आरम्भ किया और बड़े प्रयत्न से किसी तरह उसे चढ़ा दिया।
भयंकर मार-काट छिड़ने पर बड़ी कठिनाई से उन्होंने धनुष पर प्रत्यंचा तो चढ़ा दी; परंतु जब वे अपने अस्त्र-शस्त्रों का चिन्तन करने लगे तब उन्हें उनकी याद बिल्कुल नहीं आयी। युद्ध के अवसर पर अपने बाहुबल में यह महानविकार आया देख और महान दिव्यास्त्रों का विस्मरण हुआ जान वे लज्जित हो गये। हाथी, घोड़े और रथ पर बैठकर युद्ध करने वाले समस्त वृष्णि सैनिक भी उन डाकुओं के हाथ में पड़े हुए अपने मनुष्यों को लौटा न सके। उस समुदाय में स्त्रियों की संख्या बहुत थी; इसलिये डाकू कई ओर से धावा करने लगे तो भी अर्जुन उनकी रक्षा का यथासाध्य प्रयत्न करते रहे। सब योद्धाओं के देखते-देखते वे डाकू उन सुन्दरी स्त्रियों को चारों ओर से खींच-खींचकर ले जाने लगे। दूसरी स्त्रियाँ उनके स्पर्श के भय से उनकी इच्छा के अनुसार चुपचाप उनके साथ चली गयीं। तब कुन्तीकुमार अर्जुन उद्विग्न होकर सहस्रों वृष्णि सैनिकों को साथ ले गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा उने लुटेरों के प्राण लेने लगे।[1] राजन! अर्जुन के सीधे जाने वाले बाण क्षणभर में क्षीण हो गये। जो रक्तभोगी बाण पहले अक्षय थे वे ही उस समय सर्वथा क्षय को प्राप्त हो गये। बाणों के समाप्त हो जाने पर दु:ख और शोक से आघात सहते हुए इन्द्रकुमार अर्जुन धनुष की नोक से ही उन डाकुओं का वध करने लगे। जनमेजय! अर्जुन देखते ही रह गये और वे म्लेच्छ डाकू सब ओर से वृष्णि और अन्धकवंश की सुन्दरी स्त्रियों को लूट ले गये। प्रभावशाली अर्जुन ने मन-ही-मन इसे दैव का विधान समझा और दु:ख-शोक में डूबकर वे लंबी साँस लेने लगे। अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान लुप्त हो गया। भुजाओं का बल भी घट गया। धनुष भी काबू के बाहर जो गया और अक्षयबाणों का भी क्षय हो गया। इन सब बातों से अर्जुन का मन उदास हो गया। वे इन सब घटनाओं को दैव का विधान मानने लगे।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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