बभ्रु का देहावसान एवं बलराम और कृष्ण का परमधामगमन

महाभारत मौसल पर्व के अंतर्गत चौथे अध्याय में वैशम्पायन जी ने बभ्रु का देहावसान एवं बलराम और कृष्ण के परमधाम-गमन का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

बभ्रु का देहावसान एवं श्रीकृष्ण का स्त्रियों को आश्वासन

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! दारुक के चले जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने निकट खड़े हुए बभ्रु से कहा- ‘आप स्त्रियों की रक्षा के लिये शीघ्र ही द्वारका को चले जाइये। कहीं ऐसा न हो कि डाकू धन की लालच से उनकी हत्या कर डालें’। श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर बभ्रु वहाँ से प्रस्थित हुए। वे मदिरा के मद से आतुर थे ही, भाई-बन्धुओं के वध से भी अत्यन्त शोक पीड़ित थे। वे श्रीकृष्ण के निकट अभी विश्राम कर ही रहे थे कि ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से उत्पन्न हुआ एक महान दुर्धर्ष मूसल किसी व्याध के बाण से लगा हुआ सहसा उनके ऊपर आकर गिरा। उसने तुरंत ही उन के प्राण ले लिये। बभ्रु को मारा गया देख उग्र तेजस्वी श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई से कहा- ‘भैया बलराम! आप यहीं रहकर मेरी प्रतीक्षा करें। जब तक मैं स्त्रियों को कुटुम्बीजनों के संरक्षण में सौंप आता हूँ।’ यों कहकर श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी में गये और वहाँ अपने पिता वसुदेव जी से बोले- ‘तात! आप अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए हमारे कुल की समस्त स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलराम जी मेरी राह देखते हुए वन के भीतर बैठे हैं। मैं आज ही वहाँ जाकर उनसे मिलूँगा। मैंने इस समय यह यदुवंशियों का विनाश देखा है और पूर्वकाल में कुरुकुल के श्रेष्ठ राजाओं का भी संहार देख चुका हूँ। अब मैं उन यादव वीरों के बिना उनकी इस पुरी को देखने में भी असमर्थ हूँ। अब मुझे क्या करना है, यह सुन लीजिए। वन में जाकर मैं बलराम जी के साथ तपस्या करूँगा।’ ऐसा कहकर उन्होंने अपने सिर से पिता के चरणों का स्पर्श किया। फिर वे भगवान श्रीकृष्ण वहाँ से तुरंत चल दिये। इतने ही में उस नगर की स्त्रियों और बालकों के रोने का महान आर्तनाद सुनायी पड़ा। विलाप करती हुई उन युवतियों के करूण क्रन्दन सुनकर श्रीकृष्ण पुनः लौट आये और उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले- ‘देखिये! नरश्रेष्ठ अर्जुन शीघ्र ही इस नगर में आने वाले हैं। वे तुम्हें संकट से बचायेंगे।’ यह कहकर वे चले गये।

बलराम का परमधामगमन

वहाँ जाकर श्रीकृष्ण ने वन के एकान्त प्रदेश में बैठे हुए बलराम जी का दर्शन किया।[1] बलराम जी योगयुक्त हो समाधि लगाये बैठे थे। श्रीकृष्ण ने उनके मुख से एक श्वेत वर्ण के विशालकाय सर्प को निकलते देखा। उनसे देखा जाता हुआ वह महानुभाव नाग जिस ओर महासागर था उसी मार्ग पर चल दिया। वह अपने पूर्व शरीर को त्याग कर इस रूप में प्रकट हुआ था। उसके सहस्रों मस्तक थे। उसका विशाल शरीर पर्वत के विस्तार-सा जान पड़ता था। उसके मुख की कान्ति लाल रंग की थी। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर उस नाग का- साक्षात भगवान अनन्त का भली-भाँति स्वागत किया। दिव्य नागों और पवित्र सरिताओं ने भी उनका सत्कार किया। राजन! कर्कोटक, वासुकि, तक्षक, पृथुश्रवा, अरुण, कुञ्जर, मिश्री, शंख, कुमुद, पुण्डरीक, महामना धृतराष्ट्र, ह्राद, क्राथ, शितिकण्ठ, उग्रतेजा,चक्रमन्द, अतिषण्ड, नागप्रवर दुर्मुख, अम्बरीष, और स्वयं राजा वरुण ने भी उनका स्वागत किया। उपर्युक्त सब लोगों ने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की, स्वागतपूर्वक अभिनन्दन किया और अर्घ्‍य-पाद्य आदि उपचारों द्वारा उनकी पूजा सम्‍पन्न की।

श्रीकृष्ण का परमधामगमन

भाई बलराम के परम धाम पधारने के पश्चात् सम्पूर्ण गतियों को जानने वाले दिव्यदर्शी भगवान श्रीकृष्ण कुछ सोचते-विचारते हुए उस सूने वन में विचरने लगे। फिर वे श्रेष्ठ तेज वाले भगवान पृथ्वी पर बैठ गये। सबसे पहले उन्‍होंने वहाँ उस समय उन सारी बातों को स्मरण किया, जिन्हें पूर्वकाल में गान्धारी देवी ने कहा था। जूठी खीर को शरीर में लगाने के समय दुर्वासा ने जो बात कही थी उसका भी उन्हें स्मरण हो आया। फिर वे महानुभाव श्रीकृष्ण अन्धक, वृष्णि और कुरुकुल के विनाश की बात सोचने लगे। तत्‍पश्‍चात उन्‍होंने तीनों लोकों की रक्षा तथा दुर्वासा के वचन का पालन करने के लिये अपने परमधाम पधारने का उपयुक्त समय प्राप्त हुआ समझा तथा इसी उद्देश्य से अपनी सम्पूर्ण इन्द्रिय-वृत्तियों का निरोध किया। भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण अर्थों के तत्त्ववेत्ता और अविनाशी देवता हैं। तो भी उस समय उन्होंने देहमोक्ष या ऐहलौकिक लीला का संवरण करने के लिये किसी निमित्त के प्राप्त होने की इच्‍छा की। फिर वे मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके महायोग (समाधि) का आश्रय ले पृथ्वी पर लेट गये। उसी समय जरा नामक एक भयंकर व्याध मृगों को मार ले जाने की इच्छा से उस स्थान आया। उस समय श्रीकृष्ण योगयुक्त होकर सो रहे थे। मृगों में आसक्त हुए उस व्याध ने श्रीकृष्ण को भी मृग ही समझा और बड़ी उतावली के साथ बाण मार कर उनके पैर के तलवे में घाव कर दिया।

फिर उस मृग को पकड़ने के लिये जब वह निकट आया तब योग में स्थित, चार भुजा वाले, पीताम्बरधारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण पर उसकी दृष्टि पड़ी। अब तो जरा अपने को अपराधी मानकर मन-ही-मन बहुत डर गया। उसने भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों पैर पकड़ लिये। तब महात्मा श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपनी कान्ति से पृथ्वी एवं आकाश को व्याप्त करते हुए वे ऊर्ध्‍वलोक में (अपने परमधाम को) चले गये। अन्तरिक्ष में पहुँचने पर इन्द्र, अश्विनी कुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, विश्वेदेव, मुनि, सिद्ध, अप्सराओं सहित मुख्य-मुख्य गन्धर्वों ने आगे बढ़कर भगवान का स्वागत किया। राजन! तत्पश्चात् जगत की उत्पत्ति के कारण रूप, उग्रतेजस्वी, अविनाशी, योगचार्य महात्मा भगवान नारायण अपनी प्रभा से पृथ्‍वी और आकाश को प्रकाशमान करते हुए अपने अप्रमेय धाम को प्राप्त हो गये। नरेश्वर! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण श्रेष्ठ गन्धर्वों, सुन्दरी अप्सराओं, सिद्धों और साध्यों द्वारा विनीत भाव से पूजित हो देवताओं, ऋषियों तथा चारणों से भी मिले। राजन! देवताओं ने भगवान का अभिनन्दन किया। श्रेष्ठ महर्षियों ने ऋग्वेद की ऋचाओं द्वारा उनकी पूजा की। गन्धर्व स्तुति करते हुए खड़े रहे तथा इन्द्र ने भी प्रेम वश उनका अभिनन्दन किया।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत मौसल पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-12
  2. महाभारत मौसल पर्व अध्याय 4 श्लोक 13-28

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