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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
अहो! महावेगवती महा उज्ज्वल प्रणय-नदी के स्रात में, उत्तरोत्तर क्रमशः वृद्धि प्राप्त आवर्त्त में निपतित श्रीयुगल-किशोर परस्पर विवश होकर विचित्र कामचेष्टाओं का प्रकाश कर रहे हैं, अहह! श्रीवृन्दावन उन्हें विस्मय-विमुग्ध ही कर रहा है।।88।।
कहां यान वाहनादि है और कहाँ स्थान है, क्या भोजन है, क्या वस्त्र है, और क्या कहा, क्या खाया क्या ग्रहण किया- इन सब में किसी के प्रति कुछ भी लक्ष्य न रखकर परस्पर कामक्रीड़ा रस में ही जो श्रीयुगलकिशोर विवश हो रहे हैं, श्रीवृन्दावन में उन्हीं की परिचर्या कर।।89।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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