गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 585

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 19

सामान्यतः ऐसी स्थिति में सामंजस्य का स्थापित होना असम्भव ही है; परन्तु गोपांगनाएँ भगवान् श्री कृष्णचन्द्र के विप्रयाग-ताम से दग्ध थीं; इस ताप से दग्ध हो उनके हृदय विशुद्ध हो गये अतः उनमें सामंजस्य स्थापित हुआ और वे एक समूह में उपस्थित हुई। व्यवहारतः भी देखा गया हैं, कि कठिन अवसर उपस्थित होने पर सम्पूर्ण मतभेद स्वभावतः ही विस्मृत हो जाते हैं, फलतः उपस्थित कठिनता के निवारण का प्रयास भी सामूहिक हो जाता है। भगवान् ही सर्वान्तरयामी एवं सर्वाधिष्ठान हैं अतः उन्हींमें सम्पूर्ण शक्तियाँ समन्वित होती हैं। भगवन् विरुद्ध धर्माश्रय हैं, ‘अशब्दमस्पर्शमरूप मव्ययं तथाऽरम’ इत्यादि रूप से सम्पूर्ण गुण-गणशून्य अशेष-विशेषतीत भी हैं, सर्व गंध, सर्व रस, सर्व काम, सत्य-संकल्प आदि स्वरूप में सर्व-शक्ति-सम्पन्न भी हैं; भगवत्-स्वरूप ‘अणोरणीयान् महतो महीयान’, हैं। तात्पर्य कि विविध-प्रकार की सम्पूर्ण शक्तियों का समन्वय भगवान में ही होता है। अस्तु, ‘ताः समादाय’ शक्तिरूपा वे सब गोपांगनाएँ एक समूह मे में एत्रित हुई।

‘कालिन्द्या निर्विशय पुलिनं विभुः’ एक समूह में एकत्रित हुई उन सहस्र-कोटि गोपांगनाओं को लेकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र यमुना-पुलिन पर पधारे। गोपांगनाएँ तो पूर्वतः ही यमुना-पुलिन पर विराजमान थीं; अतः इस उक्ति से प्रतीत है कि वे पूर्वतः किसी ऐसे स्थान पर थीं जो निर्जन, नीरज एवं सम्पूर्ण उद्दीपन-सामग्री से शून्य था। अनन्य चिन्तन-हेतु ऐसे ही स्थलों की आवश्यक्ता होती है। भगवान् श्रीकृष्ण के विप्रयोंग-जन्य तीव्र संताप से संत्रस्त गोपांगनाआएँ भावोद्रेक में रुदन करने लगीं। उनका वह स्वर रोदन स्वन-ताल-मूर्च्छानासयुक्त संगीतरूप् में प्रस्फटित हुआ, वह गीत ही ‘गोपी-गीत’ है भावोद्रेक होने पर भगवान् का प्राकट्य हो जाता है; भगवत-प्राकट्य से सम्पूर्ण आनन्दमय हो जाता है।

‘विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम्।’ यमुना-पुलिन पर कुन्द-मन्दार उलक्षित नाना प्रकार के पुष्प विकसित हो रहे थे। उन पुष्पों की सौरभ से सुरभित शीतल मन्द पवन चल रहा था। साक्षात् मन्मथ-मन्मथ भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र आविर्भूत होकर एक समूह में संगठित हुई उन सहस्र कोटि गोपांगना-जनों को यमुना-पुलिन जैसे सुरम्य स्थान पर ले गये जहाँ सम्मूर्ण उद्दीपन-सामग्री पूर्णतः विकसित हो रहीं थी ऐसे समय में ही रासलीला का प्रारम्भ हुआ। सांगोपांग सम्पूर्ण प्रकृति ही भगवल्लीला का उपकरण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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