हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 73

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप


तिनकौ प्रेम और ही भाँति, अद्भुत रीति कही नहिं जाति।[1]

जाकौ है जासौ मन मान्‍यौ, सो है ताके हाथ बिकान्‍यौ।।
अरु ताके अँग सँग की बातें, प्‍यारी लगत सबै तिहि नाते।
रूचै सोइ ताकौं भावै, एसी नेह की रीति कहाबै।।
ब्रज देवनि के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।
ब्रह्मदिक बांछित रहैं, तिनके पद की धूरि।।
तिनहूँ कौ मन तहां न परसै, ललितादिक जिहिं ठाँ छवि दरसै[2]

अति आसक्‍त परस्‍पर प्‍यारे, एक स्‍वभाव दुहुनि मन हारे।
रस में बढ़ी नेह की बेली, तिहि अवलम्‍बे नवल-नवेली।।

प्रेम की यह रीति विलक्षण है। गोपीजनों की नेह-रीति से इसकी भिन्‍नता समझे बिना यह समझ में नहीं आती। मन जब गोपी-प्रेम से निकल जाता है, तभी वह रस-रीति में प्रवेश करता है। जिनके हृदय में व्रज-देवियों के प्रेम ने आड़े होकर मार्ग रोक लिया है वे इस रस का कथन-श्रवण करके व्‍यर्थ श्रमित होते हैं और अन्तिम धाम तक नहीं पहुँचते।

ब्रज देविन कौ प्रेम ह्वै गयौ आड़े जिन उर।
श्रोता वक्‍ता जके-थके पहुँचे न धाम धुर।।[3]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रहस्‍य-मंजरी
  2. प्रेमलता
  3. भक्ति पार्थनाबेली-चाचा वृन्‍दावनदासजी

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः