श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप
तिनकौ प्रेम और ही भाँति, अद्भुत रीति कही नहिं जाति।[1] जाकौ है जासौ मन मान्यौ, सो है ताके हाथ बिकान्यौ।। अति आसक्त परस्पर प्यारे, एक स्वभाव दुहुनि मन हारे। प्रेम की यह रीति विलक्षण है। गोपीजनों की नेह-रीति से इसकी भिन्नता समझे बिना यह समझ में नहीं आती। मन जब गोपी-प्रेम से निकल जाता है, तभी वह रस-रीति में प्रवेश करता है। जिनके हृदय में व्रज-देवियों के प्रेम ने आड़े होकर मार्ग रोक लिया है वे इस रस का कथन-श्रवण करके व्यर्थ श्रमित होते हैं और अन्तिम धाम तक नहीं पहुँचते। ब्रज देविन कौ प्रेम ह्वै गयौ आड़े जिन उर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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