श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप
हित चिंतक निज चेरिनु उर आनँद न समात। ध्रुवदास जी इसीलिये कहते हैं-‘इस प्रेम की सूक्ष्म गति है; खाता है कोई और, तृप्त होता है कोई और।'[2] श्री वृन्दावन की भी यही स्थिति है। राधा-माधव की रुचि लेकर रुचिपूर्वक उनकी सेवा करने में श्री वृन्दावन ने अपनी सम्पूर्ण सार्थकता मान ली है। प्रेम जब सम्पूर्ण रूप से तत्सुख-मय बन जाता है, तब उसमें उसके दोनों पक्ष, संयोग और वियोग, एक ही काल में प्रकाशित होने लगते हैं। जहाँ दोनों ओर से प्रिय का सुख ही प्राणों का सर्वस्व होता है, वहाँ स्थूल विरह को अवकाश नहीं रहता। स्थूल प्रेम में ही स्थूल विरह होता है। प्रेम को स्थूल बनाने वाली सकामता है, अपना सुख है। प्रेम पर अपने सुख की छाया पड़ते ही वह स्थूल बनने लगता है और उसमें देश और काल की सीमाओं के प्रविष्ट होने का मार्ग बन जाता है। अपना सुख एक अत्यन्त सीमित भाव है और उसके उदित होते ही प्रेम में बाधायें खड़ी हो जाती हैं। ये बाधायें ही स्थूल विरह की सृष्टि करती हैं। श्रीमदभागवत में व्रज-देवियों एवं श्रीकृष्ण के स्थूल विरह का वर्णन आता है। ध्रुवदास जी कहते हैं-‘गोपियों के समान भक्त नहीं हैं, उद्धव और ब्रह्मा ने उनकी चरण-रज की आकांक्षा की है, किन्तु उनके मन में कुछ सकामता आजाने से उनके और श्रीकृष्ण के बीच में अन्तर पड़ गया। सम्पूर्ण दु:खों का मूल सकामता है और सुखों का मूल निष्कामता है। पूर्ण तत्सुख-मय रस में स्थूल विरह आदि कुछ नहीं होता’। गोपिनु के सम भक्त न आही, उद्धव विधि तिनकी रज चाही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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