हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 71

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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विशुद्ध प्रेम का स्वरूप

हित चिंतक निज चेरिनु उर आनँद न समात।
निरखि निपट नैननि सुख तृण तोरति बलि जात।।[1]

ध्रुवदास जी इसीलिये कहते हैं-‘इस प्रेम की सूक्ष्‍म गति है; खाता है कोई और, तृप्‍त होता है कोई और।'[2] श्री वृन्‍दावन की भी यही स्थिति है। राधा-माधव की रुचि लेकर रुचिपूर्वक उनकी सेवा करने में श्री वृन्‍दावन ने अपनी सम्‍पूर्ण सार्थकता मान ली है। प्रेम जब सम्‍पूर्ण रूप से तत्‍सुख-मय बन जाता है, तब उसमें उसके दोनों पक्ष, संयोग और वियोग, एक ही काल में प्रकाशित होने लगते हैं। जहाँ दोनों ओर से प्रिय का सुख ही प्राणों का सर्वस्‍व होता है, वहाँ स्‍थूल विरह को अवकाश नहीं रहता। स्‍थूल प्रेम में ही स्‍थूल विरह होता है। प्रेम को स्‍थूल बनाने वाली सकामता है, अपना सुख है। प्रेम पर अपने सुख की छाया पड़ते ही वह स्‍थूल बनने लगता है और उसमें देश और काल की सीमाओं के प्रविष्‍ट होने का मार्ग बन जाता है। अपना सुख एक अत्‍यन्‍त सीमित भाव है और उसके उदित होते ही प्रेम में बाधायें खड़ी हो जाती हैं। ये बाधायें ही स्‍थूल विरह की सृष्टि करती हैं।

श्रीमदभागवत में व्रज-देवियों एवं श्रीकृष्‍ण के स्‍थूल विरह का वर्णन आता है। ध्रुवदास जी कहते हैं-‘गोपियों के समान भक्‍त नहीं हैं, उद्धव और ब्रह्मा ने उनकी चरण-रज की आकांक्षा की है, किन्‍तु उनके मन में कुछ सकामता आजाने से उनके और श्रीकृष्‍ण के बीच में अन्‍तर पड़ गया। सम्‍पूर्ण दु:खों का मूल सकामता है और सुखों का मूल निष्‍कामता है। पूर्ण तत्‍सुख-मय रस में स्‍थूल विरह आदि कुछ नहीं होता’।

गोपिनु के सम भक्‍त न आही, उद्धव विधि तिनकी रज चाही।
तिन मन कछु सकामता आई, तातें बिच अन्‍तर परयौ माई।।
दुख कौ मूल सकामता, सुख कौ मूल निहकाम।
विरह वियोग न तहाँ कछु, रसमय ध्रुव सुखधाम।।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 57
  2. सिद्धान्‍त-विचार
  3. आनंद-लता

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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