श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
संस्कृत-साहित्य
जैसे कि राधा-सुधानिधि में श्रीमदाचार्य चरण ने कहा है, 'निकुंज की सीमा में वे श्यामामणि श्री राधा सर्वोत्कर्ष रूप से विद्यमान हैं जो प्रियतम के अंकस्थित होने पर भी 'हा मोहन' इस प्रकार का मधुर प्रलाप अकस्मात कर उठती हैं।' श्री व्यासनन्दन भाष्यः- इस भाष्य को प्रियादास जी पूर्ण नहीं कर सके और यह ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय के केवल तीन पादों पर ही मिलता है। इसको त्रिपदी भाष्य भी कहते हैं। इसमें भी प्रत्येक सूत्र के दो अर्थ किये गये हैं। चौथे सूत्र का निगूढ़ अर्थ यहाँ उद्धृत किया जाता है। तत्तुसमन्वयात्। 1-1-4 ब्र. सू. निगूढ़ पक्षेतु प्रथमाधिकरणे ब्रह्मादेन 'योसौ परंब्रह्मा गोपालः' 'गूढ़' परंब्रह्मा मनुष्य लिंगम्' इत्यादि प्रतिपादितं। कृष्णाख्यं ब्रह्मा जिज्ञास्य मुक्तं तत्केवलं राधा सहितं वा किं ? तावत् प्राप्तं केवल मेव तस्मात् 'कृष्ण एव परोदेवस्तंध्यायेत्तंरसेत्ख्' 'कृष्णो ह वै परमं दैवतं,' इत्यादि श्रुतिषु केवलस्यैव प्रोक्तत्त्वाद् इति। सिद्धान्त माह, तत्तुसमन्वयात्, तद्राधाख्य तत्त्वसमन्वयात्। यत्सत्त्वे यत्सतव मन्वयः, सं, सम्यगन्वयः समन्वयस्त स्मात्, तुकारः समुच्चये। 'एकोदेवो नित्य लीलानुरक्तः एका काकी न रमते, द्वितीय मैक्षत् सपतिः पत्नी चाभवता' मित्यादि श्रतिषु पत्नी रूप श्री राधाख्य तत्त्व सत्त्वे एव तद्देवत्व सत्त्वमित्यन्वयात्। दिव्धातोः क्रीड़ार्थत्वादेकाकिनः क्रीड़ाया एवाभावादिति। समुपसर्गेणन्वयस्यैव सम्यक्त्वमुक्त भवति। राधाया अभावे लीलाया एवाभाव, इति व्यतिरेक संभवेपि कदाचिद पितदभावस्यैव वक्तुमशक्यत्वेन व्यतिरेकस्या समीचीनत्वात्। भावार्थः- अब इस सूत्र का निगूढ़ अर्थ लिखा जाता है। प्रथम अधिकरण में नराकृति परब्रह्मा का प्रतिपादन हुआ है। प्रश्न यह होता है कि जिस कृष्ण नामक परब्रह्मा की जिज्ञासा करने को वहाँ कहा गया है, वह अकेला है या राधा सहित है ? अनेक श्रुतियों ने अकेले श्रीकृष्ण का ही ध्यान और आस्वाद करने को कहा है। किन्तु सिद्धान्त पक्ष यह है कि वह कृष्ण-ब्रह्मा सदैव राधा नामक तत्त्व के समन्वय में ही रहता है! एक की स्थिति के कारण दूसरे की स्थिति को 'अन्वय' कहते हैं और सम्यक् (भली प्रकार से) अन्वय, समन्वय कहलाता है। सूत्र में समन्वय शब्द के पहले लगा हुआ 'तु' अक्षर दोनों के (राधा कृष्ण के) समुच्चय को द्योतित करता है। श्रुति में एक ऐसे लीलानुरक्त देव का वर्णन मिलता है जो अकेला रमण न कर सकने के कारण पति-पत्नी रूप में विभक्त हो गया है। अतः पत्नी रूप श्री राधा नामक तत्त्व की उपस्थिति के कारण उस देव का देवत्व स्थित है क्योंकि दिव्धातु का अर्थ क्रीड़ा है और एकाकी क्रीड़ा करना असंभव है। अन्वय शब्द का यही अर्थ है और 'सं' उपसर्ग के द्वारा उसका सम्यक्त्व कहा गया है। राधा के अभाव में लीला का अभाव है, यह व्यतिरेक यद्यपि संभव है किन्तु कभी इस प्रकार का अभाव होता नहीं है अतः व्यतिरेक का कथन असमीचीन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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