श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
संस्कृत-साहित्य
निज मत दर्पणः- इस छोटे से ग्रंथ में पांचों वेदान्त सिद्धान्तों का विद्वत्तापूर्ण किया गया है। इस मत में प्रेम-लक्षणा भक्ति साध्य और श्रवण-कीर्तनादिक उसके साधन बतलाये हैं। ज्ञान दशा में भी सेव्य-सेवक संबंध की स्थिति मानी है। शास्त्री जी ने दो प्रकार का द्वैत माना है, वास्तविक और माया जनित। मायाकृत द्वैत में भय होता है वास्तविक में नहीं। सुश्लोक मणिमालाः- इसकी रचना सं. 1914 में हुई है। यह रसिक अनन्यमाल का संस्कृत भाषान्तर है किन्तु चरित्रों का वर्णन कवित्व पूर्ण ढंग से किया गया है। हित कथामृत तरंगिणीः- इस ग्रंथ में हितप्रभु का चरित्र वर्णित है। प्रथम तरंग में हित-अवतार का उपक्रम वर्णन, द्वितीय में वंश-वर्णन, तृतीय में नृसिंहाश्रम जी से वर-प्राप्ति का वर्णन, चतुर्थ में प्रादुर्भाव-वर्णन और पंचम में बाल-लीलाओं का वर्णन है। आरम्भ में वृन्दावन [1] का और युगल स्वरूप[2] का चमत्कार पूर्ण वर्णन किया है। महोत्सव निर्णयम्ः-इसमें हित-पद्धति के अनुसार उत्सवों का निर्णय किया गया है। इसकी रचना सं. 1913 में हुई है। इसमें हितप्रभु का जन्म सं. 1530 और श्री बनचन्द्र गोस्वामी का सं. 1559 लिखा हुआ है! 'ईशावास्योपनिषद्भाष्यः- आरम्भ में भाष्यकार ने बतलाया है कि वे इस उपनिषद् का काण्व शाखीय पाठ ग्रहण न करके माध्यंदनीय शाखा का पाठ स्वीकार करेंगे क्योंकि संप्रदाय के आचार्य शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदनीय शाखा को मानने वाले हैं। इस भाष्य में प्रत्येक मंत्र के दो अर्थ किये गये हैं आंतर और बाह्य। उदाहरण के लिये सांतवे मंत्र का आंतर अर्थ दिया गया है, यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः। पूर्वं श्रुत्या श्रीकृष्णस्य अनुकूल नायकत्वं वर्णितम्। इदानीं निकुंजे मनागपिं तयोविंरहजो मोहः शोकश्च न भवति इत्याहा यास्मिन् इत्याद्या, विजानतः श्रीकृष्णस्य, कथं भूतस्य, एकत्वं प्रियया, सह अनुपश्यतः। यस्मिन् यदा निकुंजे सर्वांणि भूतानि आत्मा श्री राधिका एव अभूत, तत्र विरहजो मोहःकः, शोकश्चकः कोपिनैवेति भावः।.....एतेन अन्यासां व्रज गोप्यादीनां कथंचित् विरहो भवतु नाम, श्री राधाकृष्ण योस्तु कदापि विरहो न अस्ति, इति सिद्धान्तः सूचितः। कदाचित् तादृश भानं वैचित्यं मात्रं। यथोक्तं श्रीमदाचार्य चरणैः अंकस्थितेपि दयिते किमपि प्रलापं हा मोहनेति।। भावार्थः- पूर्व श्रुति में श्रीकृष्ण का अनुकूल नायकत्व वर्णित हुआ है। अब निकुंज में राधा-कृष्ण के बीच में विरहज मोह और शोक नहीं है, यह बतलाया जाता है। अपनी प्रिया के साथ एकत्व मानने वाले श्रीकृष्ण के, निकुंज में, सम्पूर्ण देहादिक-आत्मा-श्री राधिका ही बन गये हैं, वहाँ विरहज मोह और शोक कहाँ रह सकते हैं? इससे यह सिद्धांत सूचित किया गया है कि श्रीकृष्ण का अन्य गोपियों से विरह हो सकता है किन्तु श्री राधा से कभी नहीं होता, यदि कभी वैसा भास होता है तो वह प्रेम-वैचित्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ समस्य वेदान्त नितान्त गूढ़माहात्म्य मानंदधनं वरेण्यम्। ज्योतिः स्वरूपं मनसाप्यचिन्त्यं तद् ब्रह्मा वृन्दावनमेव साक्षात्।। वैकुण्ठ लोकादपि यद्गरिष्टं नारायण श्रीमुखगीत कीर्तिः। विशुद्ध श्रृंगाररस प्रधानं निजानुकम्पाभर मात्र लभ्यम्।। निकुंज देवी कुच कुम्भ युग्मं संलग्न कश्मीर सुरंञ्चितेन। हरिं तरंगेण च रंजयंती रसात्मिका यत्र विभाति कृष्णा।।
- ↑ सनातनौ नित्य नवीन रूपौ, निरस्ततृष्णै सततं सतृष्णौ।व्याप्तौ निकंजैक विराजमानौ, निरस्तभेदौ यूगलस्वरूपौ।।
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