हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 485

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
संस्कृत-साहित्य
  1. श्री राधा-कृष्‍ण का नित्‍य संयोगी, नित्‍य बिहारी और नित्‍य वृंदावनस्‍थ रूप। युगल-स्‍वरूप का निरूपण करते हुए श्री प्रबोधानंद ने छठे शतक में कहा है, ‘जो परम ऐश्‍वर्य से अथवा अन्‍य रस से परिचित नहीं है, जो वृंदावन से न तो कहीं अन्‍यत्र गमन करते हैं और न कहीं अन्‍यत्र से वृंदावन में आये हैं, जो किशोरावस्‍था को छोड़कर अन्‍य वय को प्राप्‍त नहीं होते, ऐसे अनिर्वच‍नीय मिथुन (युगल) वृंदावन में आनंद करते हैं[1]
  2. भोग्‍य रूपा श्री राधा का सहज प्राधान्‍य। श्री प्रबोधानंद ने उन ‘महायोगियों’ का स्‍मरण किया है जो वृंदावन के स्‍थावर-जङ्गम को सच्चिद्घन रूप मानते हुये श्री राधा के चरण-कमलों की छाया में सदैव निवास करते रहते हैं[2]
  3. ललिता आदिक सब राखियों का शुद्ध श्री राधा किंकरी रूप। श्री रूप गोस्‍वामी कृत ‘उज्‍ज्‍वल नीलमणि’ में सखियों का नायिकात्‍व भी माना गया है।[3] कुछ सखिया एसी भी हैं जो नायिकात्व की अपेक्षा नहीं रखतीं और केवल सख्‍य का अवलम्‍ब लिये रहती हैं। उनको नित्‍य सखी कहते हैं। उनके नाम कस्‍तूरी, मणि मंजरी आदि हैं। शतकों में यह भेद स्‍वीकृत नहीं हैं। राधा-वल्‍लभीय सिद्धांत में युगल की परस्‍पर दो रीतियाँ सखी के रूप में एक बनती हैं। श्री प्रबोधानंद सखियों को इसीलिये, ‘द्वयैक्यं’ (दोनों का एक रूप) कहते है।[4]
  4. वृन्दावन की रति रूपता। हम देख चुके है[5] कि श्री प्रबोधानंद तीन वृन्दावन मानते हैं, गोष्‍ठ वृन्दावन, गोपियों का क्रीड़ा-स्थल वृन्दावन और राधाकुञ्ज वाटी वृन्दावन। तीसरे को उन्होंने रति-रूप बतलाया है ओर इसी से संबंधित लीला का वर्णन तथा इसी के माहात्म्य का कथन उन्होंने इन शतकों में किया है। वृन्दावनात्मिका रति ही आस्वादित होने पर वृन्दावन रस कहलाती है। वृन्दावन रस का आस्वाद केवल सखीगण ही नहीं करतीं, स्वयं वृन्दावनेश्‍वरी भी करती हैं। बारहवें शतक में सरस्वती जी ने श्री राधा को ‘वृन्दावन-रस-मत्ता’ कहा है।[6]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐश्‍वर्य परमञ्चवेत्ति न मनाङ् नान्‍यञ्च कञ्चिदसं, न स्‍थाने परत: कदात्‍वनुगत नोवा कुतोऽप्‍यागतम्, कैशोरादपरं वयोनहि कदाप्‍यासादयन्नक्षणं, क्रीड़ातोऽविरतं तदेक मिथुनं वृंदावने नंदति ।। (6-9) ऐसा ही एक श्लोक नवम शतक में मिलता है।(9-68)
  2. श्री वृन्दावनतद्गत स्थिर चरान् स्वानन्द सच्चिद्घनान् , त्रैगुण्‍यास्पृश आप्लुतान् हरि रसोद्धे लामृतैकाम्बुधौ। पश्‍यन्तो विलसन्ति सन्त इहकेऽप्याश्रित्य सर्वात्मना, श्री राधाचरणारुणम्बुज दलच्छायां महायोगिन: ।।(12-11)
  3. सखीत्वं नायिकात्वं च ललितादीनां सर्वासामेव , समये समये स्यादेवेति ।(उ० नी० (निर्णयसागर संस्करण) आनन्दचंदिका टीका पृष्‍ठ 218)
  4. जयति जयति राधा प्रेम साररगाधा, जयति जयति कृष्‍ण स्तद्रसापार तृष्‍णा:। जयति जयति वृन्दं सत्सखीनां द्वयैक्यं, जयति जयति वृन्दाकाननं तत्स्वधाम ।। (9-45)
  5. (पृ० 163)
  6. श्रीमद् वृन्दावन रस मत्ता राधाऽसाधारण रति मत्ता। श्री कृष्‍णोंऽत्युन्मद रति तृष्‍णो लीलाधत्ते स्मरण शीला ।। (12-32)

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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