हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 453

अीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
अर्वाचीन काल (1875)

चित चिन्तन हरि लियौ रूप नै कछू न अावै ध्‍यानै ।
अहं भाव हूँ रूप समान्यौ को मैं, कहा न जानै ।।
अखिल विश्‍व लय भयौ रूप में जाग्रति रूप हरी है ।
इक रस स्वप्न सुषुप्ति तुरीया रूपहि में धगरी है ।।
रूप को रूप फूल ही दीसत देखत तन-मन फूलै ।
फूल कौ रूप भूल हैं कंधौ फूल अपनपौ भूलै ।
भूलहि भूल अधिक अधिकावै रूप कौ स्वाद न पावै ।
जल के दरस मरै जो प्यासौ कैसे तृषा बुझावै ।।
भूल के सिन्धु अथाह रूप-रस प्यास बढै़ उर भारी ।
समरथ अी हित सजनी ताकी एक पिबावन हारी ।।
प्यास अनंत माधुरी मादक, चाह अंनत जगावौ ।
उछरि-उछरि कैं डूबत फिरि-फिरि डूब-डूब कै उछरै ।
पीवत तृषित रहै हितभोरी जो हित कृपा करै ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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