हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 391

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
चाचा हित वृन्दावनदास जी

इक दिन मैं इक साधु जिमायौ भैंस दुहत तै लाती।
ता दिन तैं लागत मोहि विष से देखि जरत है छाती।।
इक दिन हौं माला लै बैठी नाम लैन कौं लागी।
उलटी हानि भई घर रोटी कुतिया लैकें भागी।।
इक दिन हौं वरसन कौं निकसी गदहा कान हलाये।
ता दिन तै उहि मंदिर ओरी पग नहिं चलत चलाये।।[1]

इसी प्रकार की काफी लम्बी तर्क परम्परा से वृद्धा साधु को तंग कर लेती है और अंत में साधु जब उसके हृदय में भगवन कृपा का संचार करते हैं तभी वह रास्ते पर आती है।

चाचा जी ने श्री राधा की प्रधानता वाली रस-रीति को साधारण लोगों तक पहुँचाने में बड़ा काम किया है। हम देख चुके हैं कि राधावल्लभीय सिद्धान्त में राधा- कृष्ण के बीच में नित्य नूतन दाम्पत्य माना गया है। नूतन दाम्पत्य केवल नव वर-वधू के बीच में होता है, अत: सखीजन नूतन दाम्पत्य के स्वाद के लिये राधाकृष्ण के विवाह की नित्य रचना करती रहती हैं। यह ‘निकुंज का विवाह’ कहलाता है। इस पद्धति से विवाह का सर्वप्रथम वर्णन करने वाले श्री ध्रुवदास हैं। हम उनके ‘बिहावले’ का गद्य रूपान्तर पीछे दे चुके हैं। निकुंज की पद्धति के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार से भी रसिक भक्तों ने श्री राधाकृष्ण के विवाह का वर्णन किया है। यह ब्रज का विवाह कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (विमुख उद्धारण बेली)

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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