श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
चाचा हित वृन्दावनदास जी
अष्टयामों की रचना इस सम्प्रदाय में बहुत प्रारंभ से होती चली आई है। प्रथम प्राप्त अष्टयाम श्री ध्रुवदास का है जो ‘रस-मुक्तावली लीला’ के नाम से उनकी बयालीस लीलाओं में ग्रथित है। इस लीला के अन्त में ध्रुवदास जी ने कहा है, सांझ भोर लौ ऐसे ही भोर सांझ लौ जानि। इस अष्टयाम में दी हुई दिन-चर्या बहुत सीधी-सादी है। गोस्वामी दामोदरवर जी (अठारहवीं शती का आरंभ) का अष्टयाम भी लगभग इसी शैली पर रचा गया है। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चाचा जी के समसामयिक श्री अतिवल्लभ जी के अष्टयाम में हम इस दिनचर्या को विस्तार ग्रहण करते देखते हैं। अतिवल्लभ जी ने अपने अष्टयाम में जलकेलि, दानकेलि, रास क्रीडा, विवाह, जन्म गाँठ, वनविहार, षट्ऋतु विहार आदि का समावेश किया है और चाचा जी ने अपने अष्टयामों में इनमें से अधिकांश को ग्रहण किया है। उन्होंने इनके अतिरिक्त आंख मिचौनी, पुष्पचयन आदि नई लीलाओं की उद्भावना अपने अष्टयामों में की है। चाचा जी की साधारण प्रवृत्ति लीलाओं की पृष्ठ भूमि वृहत्तर रखने की ओर है। निकुंज के निभृत कक्ष में होने वाली रहस्यमयी श्रृंगार-केलि का वर्णन उन्होंने खूब किया है किन्तु व्रज-वृन्दावन के विशाल हरित अंचल में राधा-कृष्ण को क्रीडा परायण देखना उनको अधिक रुचिकर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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