हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 387

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
चाचा हित वृन्दावनदास जी

अष्टयामों की रचना इस सम्प्रदाय में बहुत प्रारंभ से होती चली आई है। प्रथम प्राप्त अष्टयाम श्री ध्रुवदास का है जो ‘रस-मुक्तावली लीला’ के नाम से उनकी बयालीस लीलाओं में ग्रथित है। इस लीला के अन्त में ध्रुवदास जी ने कहा है,

सांझ भोर लौ ऐसे ही भोर सांझ लौ जानि।
हित ध्रुव यह सुख सखिनु को निसिदिन उर में आनि।।

इस अष्टयाम में दी हुई दिन-चर्या बहुत सीधी-सादी है। गोस्वामी दामोदरवर जी (अठारहवीं शती का आरंभ) का अष्टयाम भी लगभग इसी शैली पर रचा गया है। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चाचा जी के समसामयिक श्री अतिवल्लभ जी के अष्टयाम में हम इस दिनचर्या को विस्तार ग्रहण करते देखते हैं। अतिवल्लभ जी ने अपने अष्टयाम में जलकेलि, दानकेलि, रास क्रीडा, विवाह, जन्म गाँठ, वनविहार, षट्ऋतु विहार आदि का समावेश किया है और चाचा जी ने अपने अष्टयामों में इनमें से अधिकांश को ग्रहण किया है।

उन्होंने इनके अतिरिक्त आंख मिचौनी, पुष्पचयन आदि नई लीलाओं की उद्भावना अपने अष्टयामों में की है। चाचा जी की साधारण प्रवृत्ति लीलाओं की पृष्ठ भूमि वृहत्तर रखने की ओर है। निकुंज के निभृत कक्ष में होने वाली रहस्यमयी श्रृंगार-केलि का वर्णन उन्होंने खूब किया है किन्तु व्रज-वृन्दावन के विशाल हरित अंचल में राधा-कृष्ण को क्रीडा परायण देखना उनको अधिक रुचिकर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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