श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
इत चैंटी उत युगल सौं तत्सुख हित निष्काम। अन्यत्र उन्होंने कहा है, ‘जो महा अभागे उपासक इष्ट की सेवा करके अन्य सब की निन्दा करते हैं, वे मूल को सींच कर वृक्ष को अग्नि से जलाते हैं।’ जल सींचत हैं मूल में वृक्ष जरावत आग। धर्मी रसिकों के मन की स्थिति, बाह्य शारीरिक लक्षण, रहन-सहन, लोक व्यवहार, स्थापित रूढ़ियों तथा वैदिक और लौकिक कर्मों के प्रति उनके दृष्टिकोण आदि का विशद वर्णन संप्रदाय के ग्रन्थों में मिलता है। रसिकों ने मन की दो स्थितियाँ बतलाई हैं। अपनी साधारण स्थिति में वह केवल वैषयिक रसों का ग्रहण करता है और असाधारण स्थिति में अप्राकृत रस का आस्वाद करता है। मन की साधारण गति के नष्ट होने पर असाधारण स्थिति का उदय होता है। नागरीदास जी ने बतलाया है, ‘रसिक-नरेश[3] के रस-मार्ग पर चलने के लिये पहिले इस मन को मार देना होता है और फिर सर्वथा नये रूप में इसे जिला लेना होता है। मार कर जिलाया हुआ मन ही इस रस का रसिक बनता है। जब विषय-वासना को जला कर उसकी राख को भी झाड़-फटकार दिया जाता है, तब यह देह रसिक-नरेश के रस-मार्ग पर लगती है।’ यह मन मारि जिवाईये जियत न आवै काज। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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