श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
ममता ही माधुर्य रस, समता साधन ज्ञान। अपनी रसरीति के प्रति ममता रखकर उपासना करने वालों को ‘धर्मीं रसिकों की मंडली में ही खान-पान करना चाहिये। जिन लोगों की उपासना भिन्न है, उनके साथ खान-पान करना उचित नहीं हैं। जो रसिक युगल के रंग में रँग रहे हैं उनकी जूठनि ग्रहण करनी चाहिये, जहाँ-तहाँ भोजन कर लेने से भजन का तेज घट जाता है। जहाँ इष्ट मिलता हो, मन मिलता हो, भजन-रसरीति मिलती हो वहीं निर्भय होकर मिलना चाहिये और उनहीं लोगों के साथ प्रीति करनी चाहिये। जिनको यह रस नहीं रुचता है, उनसे रस-उपासकों का कोई नाता नहीं है। सत्संग वह है जिसके मिलने पर गृह-व्यवहार विस्मृत हो जाय और तत्क्षण हृदयं में अद्भुत युगल-बिहार प्रकाशित हो उठे।'[2] सत्संग की यह मर्यादा केवल उपासना को शुद्ध रखने की दृष्टि से बाँधी गई है। साथ ही, इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि यह मर्यादा सकुचितता बनकर कहीं प्रेम के स्वाभाविक विस्तार में बाधक न बन जाय। प्रेम निसगंतः एक उदार भाव है। प्रेम का प्रभाव मन और नेत्रों पर एक साथ पड़ता है। प्रेममय मन के साथ दृष्टि भी प्रेममय बन जाती है। प्रेम-दृष्टि से केवल प्रेम दिखलाई देता है, अतः संकुचितता और विरोध को उसमें स्थान नहीं है। सेवक जी ने, इसीलिये, सब जीवों से प्रीति रखकर अपनी उपासना की रीति के निर्वाह करने का आदेश दिया है और इस प्रकार के आचरण को श्री हरिवंश की कृपा का फल बतलाया है। सब जीवनि सौं प्रीति रीति निबाहत आपुनी। श्री हिताचार्य के सम्पूर्ण धर्म का समास एक दोहे में करते हुए लाड़िलीदास जी कहते हैं, ‘चैंटी से लेकर युगल पर्यन्त सब के साथ तत्सुख-मय निष्काम प्रेम और नाम-वाणी में परम विश्राम की प्राप्ति ही श्री-हरिवंश का सुन्दर धर्म है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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