हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 166

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


लाड़िलीदास जी कहते हैं ‘मधुर रस का आधार ममता है और ज्ञान का साधन समता है। समता रखने से प्रेम की हानि होती है, ममता ही रस की खान है।’

ममता ही माधुर्य रस, समता साधन ज्ञान।
प्रेम-हानि समता किये, ममता रस की खान।।[1]

अपनी रसरीति के प्रति ममता रखकर उपासना करने वालों को ‘धर्मीं रसिकों की मंडली में ही खान-पान करना चाहिये। जिन लोगों की उपासना भिन्न है, उनके साथ खान-पान करना उचित नहीं हैं। जो रसिक युगल के रंग में रँग रहे हैं उनकी जूठनि ग्रहण करनी चाहिये, जहाँ-तहाँ भोजन कर लेने से भजन का तेज घट जाता है। जहाँ इष्ट मिलता हो, मन मिलता हो, भजन-रसरीति मिलती हो वहीं निर्भय होकर मिलना चाहिये और उनहीं लोगों के साथ प्रीति करनी चाहिये। जिनको यह रस नहीं रुचता है, उनसे रस-उपासकों का कोई नाता नहीं है। सत्संग वह है जिसके मिलने पर गृह-व्यवहार विस्मृत हो जाय और तत्क्षण हृदयं में अद्भुत युगल-बिहार प्रकाशित हो उठे।'[2]

सत्संग की यह मर्यादा केवल उपासना को शुद्ध रखने की दृष्टि से बाँधी गई है। साथ ही, इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि यह मर्यादा सकुचितता बनकर कहीं प्रेम के स्वाभाविक विस्तार में बाधक न बन जाय। प्रेम निसगंतः एक उदार भाव है। प्रेम का प्रभाव मन और नेत्रों पर एक साथ पड़ता है। प्रेममय मन के साथ दृष्टि भी प्रेममय बन जाती है। प्रेम-दृष्टि से केवल प्रेम दिखलाई देता है, अतः संकुचितता और विरोध को उसमें स्थान नहीं है। सेवक जी ने, इसीलिये, सब जीवों से प्रीति रखकर अपनी उपासना की रीति के निर्वाह करने का आदेश दिया है और इस प्रकार के आचरण को श्री हरिवंश की कृपा का फल बतलाया है।

सब जीवनि सौं प्रीति रीति निबाहत आपुनी।
श्रवण-कथन परतीति यह जु कृपा हरिवंश की।।

श्री हिताचार्य के सम्पूर्ण धर्म का समास एक दोहे में करते हुए लाड़िलीदास जी कहते हैं, ‘चैंटी से लेकर युगल पर्यन्त सब के साथ तत्सुख-मय निष्काम प्रेम और नाम-वाणी में परम विश्राम की प्राप्ति ही श्री-हरिवंश का सुन्दर धर्म है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सुधर्म बोधनी
  2. श्री ध्रुवदास-मानशिक्षा

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः