श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान
रसिक अनन्यमाल के इस अन्त: साक्ष्य के विरुद्ध सबसे बड़ी बाधा यह आती है कि इसके कर्त्ता भगवत मुदित जी का चरित्र नाभा जी की भक्तमाल में मिलता है। भक्तमाल का रचना काल विद्वानों ने सं. 1650 के लगभग माना है। इस ग्रन्थ में भगवत मुदित जी का चरित्र होने का अर्थ यह है कि वे सं.1650 के पूर्व प्रसिद्ध हो चुके होंगे और उनका जन्म सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम दशक में हुआ होगा। यह मानने पर श्री दामोदर चन्द्र जी के जीवन के अन्तिम वर्षों में, सं. 1710 के लगभग, उनकी आयु 100 वर्ष की हो जाती है, और इस आयु में ‘रसिक अनन्य माल’ जैसे खोज पूर्ण ग्रन्थ का प्रणयन असंभव है। जिस अनुवाद ग्रन्थ का जिक़्र ऊपर किया गया है वह भी, इस हिसाब से, उन्होंने अपनी 97 वर्ष की आयु में बनया होगा। इन कारणों से नाभा जी की भक्तमाल में दिया हुआ भवगत् मुदित जी का चरित्र नाभा दास जी की रचना मालूम नहीं होती और उनके बाद भक्तमाल में जोड़ा गया होगा। ध्रुवदास जी की ‘भक्त नामावली’ की रचना नाभा जी की भक्तमाल के पीछे हुइ है। भक्तनामाव जी के अन्त में निम्न लिखित दोहा मिलता है, जिससे यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है:- भक्त नरायन भक्त सब धरैं हिये दृढ़ प्रतीति। बरनी आछी भाँति सौं जैसी जाकी रीति।। नाभा जी का नाम नारायन दासजी था। भक्त नामावली में भगवत मुदित जी का नामोल्लेख नहीं हैं, उनके पिता माधौदास जी का है। भक्तमाल में, जिसकी रचना पहिले हुई है, भगवत मुदित जी के सम्बन्ध में एक पूरा छप्पय मिलता है। माधौदास जी का नामोल्लेख भी नहीं है। भक्तमाल[1] में 195 छप्पय हैं जिसमें भगवत् मुदित जी से सम्बन्धित छप्पय 194 वाँ है। 188 वाँ छप्पय एक ‘भक्तमाली’[2] गोविन्ददास जी के सम्बन्ध में है। स्पष्ट रूप से यह नाभा जी की रचना नहीं है, क्योंकि भक्तमाल की रचना से पूर्व किसी ‘भक्तमाली’ की स्थिति असंभव है। इस छप्पय की, और इसके बार की सभी छप्पयों की, भाषा और रचना शैली भी नाभा जी की नहीं है। अत: यह सब पीछे जोड़े हुए जान पड़ते हैं। ‘भक्त नामावली’ में भगवत मुदित जी का उल्लेख न होने के मानी यह हैं कि उनकी ख्याति सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में हुई थी और उनका जन्म उस शताब्दी के उत्तरार्धं में हुआ था। उनकी दोनों कृतियाँ अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ की हैं और उनकी अवस्था उस समय बहुत अधिक न रही होगी। अत: रसिक अनन्य माल का रचना काल सं. 1710 से सं. 1720 तक ठहरता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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