अन्तिम समय तन त्यागता, जिस भाव से जन व्याप्त हो।
उसमें रंगा रहकर सदा, उस भाव ही को प्राप्त हो॥6॥
इस हेतु मुझको नित निरन्तर ही समर कर युद्ध भी।
संशय नहीं, मुझमें मिले, मन बुद्धि मुझमें धर सभी॥7॥
अभ्यास-बल से युक्त योगी चित्त अपना साध के।
उत्तम पुरुष को प्राप्त होता है उसे आराध के॥8॥
सर्वज्ञ शास्ता सूक्ष्मतम आदित्य-सम तम से परे।
जो नित अचिन्त्य अनादि सर्वाधार का चिन्तन करे॥9॥
कर योग-बल से प्राण भृकुटी-मध्य अन्तिम काल में।
निश्चल हुआ वह भक्त मिलता दिव्य पुरुष विशाल में॥10॥