पर दूर होता ज्ञान से जिनका हृदय-अज्ञान है।
करता प्रकाशित 'तत्त्व', उनका ज्ञान सूर्य समान है॥16॥
तन्निष्ठ तत्पर जो उसी में, बुद्धि मन धरते वहीं।
वे ज्ञान से निष्पाप होकर, जन्म फिर लेते नहीं॥17॥
विद्या-विनय-युत-द्विज, श्वपच, चाहे गऊ, गज, श्वान है।
सबके विषय में ज्ञानियों की दृष्टि एक समान है॥18॥
जो जन रखें मन साम्य में, वे जीत लेते जग यहीं।
पर ब्रह्म सम निर्दोष है, यों ब्रह्म में वे सब कहीं॥19॥
प्रिय वस्तु पा न प्रसन्न, अप्रिय पा न जो सुख-हीन है।
निर्मोह दृढ-मति ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म में लवलीन है॥20॥