यद्यपि अजन्मा, प्राणियों का ईश मैं अव्यय परम्।
पर निज प्रकृति आधीन कर, लूँ जन्म माया से स्वयम्॥6॥
हे पार्थ! जब जब धर्म घटता और बढ़ता पाप ही।
तब तब प्रकट मैं रूप अपना नित्य करता आप ही॥7॥
सज्जन जनों का त्राण करने, दुष्ट-जन-संहार-हित।
युग-युग प्रकट होता स्वयं मैं, धर्म के उद्धार हित॥8॥
जो दिव्य मेरा जन्म कर्म रहस्य से सब जान ले।
मुझमें मिले तन त्याग अर्जुन! फिर न वह जन जन्म ले॥9॥
मन्मय ममाश्रित जन हुए, भय क्रोध राग-विहीन हैं।
तप यज्ञ से हो शुद्ध, बहु मुझमें हुए लवलीन हैं॥10॥