सुख में न चाह, न खेद जो दुख में कभी अनुभव करे।
थिर-बुद्धि वह मुनि, राग एवं क्रोध भय से जो परे॥56॥
शुभ या अशुभ जो भी मिले, उसमें न हर्ष न शोक ही।
निःस्नेह जो सर्वत्र है, थिर-बुद्धि होता है वही॥57॥
हे पार्थ! ज्यों कछुआ समेटे अंग चारों छोर से।
थिर-बुद्धि जब यों इन्द्रियाँ, सिमटें विषय की ओर से॥58॥
होते विषय सब दूर हैं, आहार जब जन त्यागता।
रस किन्तु रहता, ब्रह्म को कर प्राप्त वह भी भागता॥59॥
कौन्तेय! करते यत्न इन्द्रिय-दमन हित विद्वान् हैं।
मन किन्तु बल से खैंच लेती इन्द्रियाँ बलवान हैं॥60॥