फल-आश तज, शास्त्र-विधिवत्, मानकर कर्तव्य ही॥
अति शान्त मन करके किया हो, यज्ञ सात्त्विक है वही॥11॥
हे भरतश्रेष्ठ! सदैव ही फल-वासना जिसमें बसी॥
दम्भाचरण हित जो किया वह यज्ञ जानो राजसी॥12॥
विधि-अन्नदान-विहीन जो, बिन दक्षिणा के हो रहा॥
बिन मंत्र श्रद्धा, यज्ञ जो, वह तामसी जाता कहा॥13॥
सुर द्विज तथा गुरु प्राज्ञ पूजन ब्रह्मचर्य सदैव ही॥
शुचिता अहिंसा नम्रता तन की तपस्या है यही॥14॥
सच्चे वचन, हितकर, मधुर, उद्वेग-विरहित नित्य ही॥
स्वाध्याय का अभ्यास भी, वाणी-तपस्या है यही॥15॥