हरिगीता अध्याय 16:6-10

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 16 पद 6-10

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दो भाँति की है दृष्टि दैवी, आसुरी संसार में॥
सुन आसुरी अब पार्थ! दैवी कह चुका विस्तार में॥6॥

क्या है प्रवृत्ति निवृत्ति! जग में जानते आसुर नहीं॥
आचार, सत्य विशुद्धता होती नहीं उनमें कहीं॥7॥

कहते असुर झूठा जगत्, बिन ईश बिन आधार है॥
केवल परस्पर योग से बस भोग-हित संसार है॥8॥

इस दृष्टि को धर, मूढ़ नर, नष्टात्म, रत अपकार में॥
जग-नाश हित वे क्रूर-कर्मी जन्मते संसार में॥9॥

मद मान दम्भ-विलीन, काम अपूर का आश्रय लिए॥
वर्तें अशुचि नर मोह वश, होकर असत् आग्रह किए॥10॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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