अर्जुन ने कहा-
लक्षण कहो उनके प्रभो, जन जो त्रिगुण से पार हैं॥
किस भाँति होते पार, क्या उनके कहो आचार हैं॥21॥
श्रीभगवान् ने कहा-
पाकर प्रकाश, प्रवृत्ति, मोह, न पार्थ! इनसे द्वेष है॥
यदि हों नहीं वे प्राप्त, उनकी लालसा न विशेष है॥22॥
रहता उदासी-सा गुणों से, हो नहीं विचलित कहीं॥
सब त्रिगुण करते कार्य हैं, यह जान जो डिगता नहीं॥23॥
है स्वस्थ, सुख-दुख सम जिसे, सम ढेल पत्थर स्वर्ण भी॥
जो धीर, निन्दास्तुति जिसे सम, तुल्य अप्रिय-प्रिय सभी॥24॥
सम बन्धु वैरी हैं जिसे अपमान मान समान है॥
आरम्भ त्यागे जो सभी, वह गुणातीत महान है॥25॥
जो शुद्ध निश्चल भक्ति से भजता मुझे है नित्य ही॥
तीनों गुणों से पार होकर ब्रह्म को पाता वही॥26॥
अव्यय अमृत मैं और मैं ही ब्रह्मरूप महान हूँ॥
मैं ही सनातन धर्म और अपार मोद-निधान हूँ॥27॥
चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥14॥