अर्जुन ने कहा--
यह सौम्य नर-तन देख भगवन्! मन ठिकाने आ गया।
जिस भाँति पहले था वही अपनी अवस्था पा गया॥51॥
श्रीभगवान् ने कहा-
हे पार्थ! दुर्लभ रूप यह जिसके अभी दर्शन किये।
सुर भी तरसते हैं इसी की लालसा मन में लिये॥52॥
दिखता न मैं तप, दान अथवा यज्ञ, वेदों से कहीं।
देखा जिसे तूने उसे नर देख पाते हैं नहीं॥53॥
हे पार्थ! एक अनन्य मेरी भक्ति से सम्भव सभी।
यह ज्ञान, दर्शन, और मुझमें तत्त्व जान प्रवेश भी॥54॥
मेरे लिये जो कर्म-तत्पर, नित्य मत्पर, भक्त है।
पाता मुझे वह जो सभी से वैर हीन विरक्त है॥55॥
ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥11॥