श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
षोडश अध्याय
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: ।
कामोपभोग परमा एतावदिति निश्चिता: ॥11॥
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥12॥
तथा वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है' इस प्रकार मानने वाले होते हैं ॥11॥
वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय-भोगों के लिये अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं ॥12॥
भावानुवाद- ‘प्रलयन्ताम्’- मरने तक। ‘एतावदिति’ - जिन्होंने शास्त्र का तात्पर्य यह निश्चित किया है कि इन्द्रियाँ विषय-सुख में डूबी रहें, चिन्ता किस बात की?।।11-12।।
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥13॥
असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी ॥14॥
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोडन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता: ॥15॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालंसमावृता: ।
प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽश्चौ ॥16॥
वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायेगा ॥13॥
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ। मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ ॥14॥
मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं ॥15-16॥
भावानुवाद - ‘अशुचै नरके’ - वैतरणी आदि नरक में।।16।।
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