श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 478

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
षोडश अध्याय

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण:क्षयाय जगतोऽहिता: ॥9॥
इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके, जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सबका अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिये ही समर्थ होते हैं ॥9॥

भावानुवाद- इस प्रकार असुरगण कोई-कोई नष्टात्मा, कोई-कोई अल्प ज्ञान वाले, कोई-कोई उग्र कर्म करने वाला स्वेच्छाधारी महानार की होता है। इसीलिए ‘एताम्’ इत्यादि ग्यारह श्लोकों को कह रहे हैं। ‘अवष्टभ्य’ का तात्पर्य है - आश्रय कर।।9।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- आत्म ज्ञान रहित आसुरी श्रेणी के लोग मानव सभ्यता के विकास के नाम पर नाना प्रकार के नये-नये आविष्कार करते हैं। कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक प्राणियों का वध करने के लिए आयुधों और यन्त्रों का आविष्कार हो रहा है, जिनके द्वारा दूर-दूर के महाद्वीपों के लोगों का संहार किया जा सके। ऐसे आविष्कारों के ऊपर उन्हें गर्व है। इन अस्त्रों के कारण किसी भी क्षण संसार का विनाश हो सकता है। ईश्वर और वेदों में विश्वास न होने के कारण ही आसुर समाज संसार को ध्वंस करने का कार्य कर रहा है, संसार की शान्ति तथा सुख के लिए नहीं।।9।।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता: ।
मोहादृगृहीत्वासद्ग्राहान् प्रवर्त्तन्तेऽशुचिव्रता: ॥10॥
वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं ॥10॥

भावानुवाद - ‘असद् ग्राहान् प्रवर्त्तन्ते’ - कुमत में प्रवृत्त होते हैं। ‘अशुचिव्रताः’ - जिसने शौच (अच्छा) आचार को छोड़ कर गर्हित व्रतों को ग्रहण किया है।।10।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- ईश्वर और वेदों के सिद्धान्तों को नहीं मानने वाले आसुर स्वभाव वाले लोग धन संग्रह तथा उसके द्वारा काम के उपभोग में ही मनुष्य जीवन को कृतकृत्य समझते हैं। इसके लिए वे झूठी प्रतिष्ठा और वृथा अहंकार के मद में चूर होकर मद्य, मांस, अवैध स्त्रीसंग तथा द्यूत क्रीड़ा आदि अपवित्र कार्यों में आसक्त रहते हैं तथा वैदिक सिद्धान्तों का उपहार करते हैं। आधुनिक निरीश्वर समाज ऐसे लोगों की ही प्रशंसा करता है। ये लोग समाज को ध्वंसता के कगार पर बैठाकर भी अपने को बुद्धिमान होने का अभिमान करते हैं।।10।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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