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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- “इस सनातन योग के दो विभाग हैं अर्थात् जड़द्रव्यमय विभाग और आत्मयथात्मरूप चिन्मय विभाग। जड़द्रव्यमय विभाग पृथक् रूप में दृष्ट होने से ‘कर्ममात्र’ हो पड़ता है। जो इस विभाग में आबद्ध रहते हैं, वे ‘कर्मजड़’ हैं। जो चिन्मय विभाग को लक्ष्यकर जड़कर्म का अनुष्ठान करते हैं, वे ही युक्त हैं। चिन्मय विभाग का विशेषपूर्वक विचार करने से उसके एक अंश में ‘जीव-तत्त्व’ और दूसरे अंश में ‘भगवत्-तत्त्व’ है। भगवत्-तत्त्व अनुभव करने वाले पुरुष ही आत्मयथात्म्य का उपदेयांश लाभ करते हैं। भगवत्-तत्त्व में चिन्मय जनम-कर्मादि और नित्य जीवसंगित्व के अनुभव द्वारा वह अनुभव सिद्ध होता है। इस अध्याय के आरम्भ में ही यह विषय कहा गया। भगवान् स्वयं इस नित्य-धर्म के प्रथम उपदेशक हैं। जीवों के अपने बुद्धिदोष से जड़बद्ध होने पर भगवान् चित्-शक्तिक्रम से अवतीर्ण होकर स्व-तत्त्वशिक्षा देकर जीवा को अपनी लीला के उपयोगी करते हैं। जो भगवान् के देह और जन्म-कर्मादि को ‘मायामय’ कहते हैं, वे नितान्त मूढ़ हैं।
जो जितने परिमाण में शुद्ध रूप में मेरी उपासना करते हैं, वे उतने ही परिमाण में मुझे प्राप्त करते हैं। कर्मयोगियों के समस्त प्रकार के कर्म ही ‘यज्ञ’ हैं। दैवयज्ञ, ब्रह्मचर्ययज्ञ, गृहमेधयज्ञ, संयमयज्ञ, अष्टाङ्गयोगयज्ञ, तपोयज्ञ, द्रव्ययज्ञ स्वाध्याययज्ञ, वर्णाश्रमयज्ञ इत्यादि जितने भी प्रकार के यज्ञ जगत् में हैं, वे समस्त कर्ममय यज्ञ हैं। उन सभी में जो आत्मयथात्म्यरूप चिन्मय अंश है, वही अनुसन्धेय है। संशय ही इस तत्त्वज्ञान का परमशत्रु है। श्रद्धावान् व्यक्ति उपयुक्त तत्त्ववित् पुरुष के समीप तत्त्व की शिक्षा प्राप्तकर आत्मवान् होकर संशय को दूरकर आत्मयथात्म्य लाभ करने के लिए तब तक कर्मयोग का अवलम्बन करेंगे, जब तक जड़सम्बन्धयुक्त हैं।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।42।।
श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण कृत श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय की सारार्थवर्षिणी-प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त।
चतुर्थ अध्याय समाप्त।
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