श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥41॥
जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्य ज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है। हे धनञ्जय! वह कर्मों के बन्धन से नहीं बँधता।
भावानुवाद- इस प्रकार के व्यक्ति ही निष्कर्म हो सकते हैं। इसीलिए श्रीभगवान् कह रहे हैं-जो ‘योग’ अर्थात् निष्काम कर्मयोग के बाद संन्यास द्वारा कर्मत्याग किये हैं और अनन्तर ज्ञनाभ्यास से संशय का छेदन कर लिये हैं, जो ‘आत्मवान्’ अर्थात् प्रत्यक् आत्मा को प्राप्त किये हैं-उन्हें कर्मसमूह नहीं बाँधते।।41।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- इन अन्तिम दो श्लोकों में श्रीकृष्ण विषय का उपसंहार करते हुए कर रहे हैं-भगवान् के उपदेशानुसार जो लोग अपने समस्त कर्मों को भगवान् के चरणों में समर्पितकर निष्काम कर्मयोग का अवलम्बन करते हैं, चित्त की शुद्धि होने पर उनके हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है, जिससे उनके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। उस समय वे कर्मबन्धन से सर्वथा छुटकारा पाते हैं।
टीका में उल्लिखित ‘प्रत्यक्-आत्मा’ का तात्पर्य विषय-भोग का त्याग करने वाले भगवत्-उन्मुख जीवात्मा से है। इसके विपरीत भगवत्-विमुख तथा विषयोन्मुख जीवात्मा को ‘पराक्-आत्मा’ कहा गया है।।41।।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥42॥
अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो। हे भारत! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्ध करो।
भावानुवाद-‘तस्मात्’ इत्यादि के द्वारा श्रीभगवान उपसंहार कर रहे हैं। ‘हत्स्थं’ अर्थात् हृदगत संशय को छेदनकर ‘योग’ अर्थात निष्काम कर्मयोग का ‘आतिष्ठ’ अर्थात् आश्रयकर युद्ध के लिए उद्यत हो जाओ।।42।।
मुक्ति के लिए निर्दिष्ट उपायों मेंसे यहाँ ज्ञान की प्रशंसा की गई है। किन्तु, इस अध्याय में ऐसा निरूपित हुआ है कि कर्म ही ज्ञान का उपाय है।
श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय की साधुजनसम्मताभक्तानन्ददायिनी सारार्थवर्षिणी टीका समाप्त।
श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय की सारार्थवर्षिणी टीका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।
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