श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 121

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

महाप्रबल काम इन्द्रियों की सहायता से बहिर्मुख जीवों को मोहपाश में बद्ध करता है। इसलिए सर्वप्रथम चक्षु आदि इन्द्रियों को वशीभूत करना कर्तव्य है। इस प्रकार बाह्येन्द्रियों का दमन करने से संकल्प-विकल्प करने वाला मन भी वशीभूत हो जाएगा।

भगवान ने उद्धव को भी ऐसा ही कहा है-‘विषयेन्द्रिय संयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा’[1]अर्थात् विषयों के साथ इन्द्रियों के संयोग से ही मन चंचल होता है, अन्यथा वह चंचल नहीं होता। इसलिए इन्द्रियों का संयम करने वाले पुरुषों का मन निश्चल और शान्त होता है-

‘असम्प्रयुञ्जतः प्राणान शाम्यति स्तिमितं मनः’[2]

“अतएव हे भरतर्षभः! तुम सर्वप्रथम इन्द्रियादि को नियमितकर ज्ञान-विज्ञान को ध्वंस करने वाले महापापरूप काम को जीतो अर्थात् उसके अपगत भाव को नाश करते हुए उसके स्व-स्वभाव को वापस लाकर उसके प्रेमात्मक स्वरूप का अवलम्बन करो। जड़बद्ध जीव का प्रथम प्रशस्त कर्त्तव्य यही है कि वह सर्वप्रथम युक्त वैराग्य और स्वधर्म का पालन करे और क्रमशः साधनभक्ति लाभकर प्रेमाभक्ति का साधन करे। मेरी कृपा या मेरे भक्तों की कृपा से जो निरपेक्ष भक्ति प्राप्त की जाती है, वह नितान्त विरल है और कहीं-कहीं यह आकस्मिकी प्रथा के रूप में उदित होती है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।41।।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेर्य: परतस्तु सः॥42॥
कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है।

भावानुवाद- सर्वप्रथम मन और बुद्धि को जीतने की चेष्टा करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा होना असम्भव है। इसके लिए ही ‘इन्द्रियाणि पराणि’ इत्यादि कह रहे हैं। इन्द्रियाँ दशों दिशाओं को जीतने वाले वीर पुरुष से भी अधिक बलवान् और श्रेष्ठ हैं अर्थात् वैसा पुरुष भी जितेन्द्रिय नहीं हो सकता है। मन इन्द्रियों से भी प्रबल और श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वप्नावस्था में इन्द्रियों के नष्ट होनेपर भी मन कार्यशील रहता है। विज्ञानरूपी बुद्धि मन से प्रबल और श्रेष्ठ है, क्योंकि सुसुप्तावस्था या सुनिद्राकाल में मन के नष्ट होने पर भी समान आकार-विशिष्ट बुद्धि अनश्चर होती है। जो उस बुद्धि से भी श्रेष्ठतर अर्थात बलशाली होकर अवस्थित है और बुद्धि के नष्ट होने पर भी वर्तमान रहती है-वह आत्मा है। यही प्रसिद्ध जीवात्मा काम को जीतने वाला है। वस्तुतः यह जीवात्मा जो कि सबकी अपेक्षा अतिशय प्रबल है, इन्द्रियादि को जीतकर निश्चितरूप में काम को भी जीतने में समर्थ है-इस विषय में असम्भावना (संदेह) मत करो।।42।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 11/26/22
  2. श्रीमद्भा.11/26/23

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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