श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥40॥
इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।
भावानुवाद- यह काम कहाँ रहता है-इसके उत्तर में श्रीभगवान् ‘इन्द्रियाणि’ इत्यादि कह रहे हैं। ये सब (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि) इस कामरूप शत्रु के आश्रय हैं जो कि महादुर्ग या राजधानी के समान है। शब्दादि विषय समूह उस राजा के देश या राज्य हैं। इन सबके द्वारा ‘देही’ अर्थात् जीव मोहित होता है।।40।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- शत्रु के छिपने का स्थान जान लेने पर उस स्थान को ध्वंसकर शत्रु को आसनी से पराजित किया जा सकता है। काम का आश्रयस्थल इन्द्रियाँ हैं, अतः इन्द्रियों का दमन करने से ही काम को आसानी से पराजित किया जाता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ काम को प्रबल प्रतापी नरपति, इन्द्रियों को महादुर्ग के द्वारा परिवेष्टित राजधानी स्वरूप और विभिन्न विषयों को राज्य या जनपद स्वरूप बताया है।
“विशुद्ध ज्ञानस्वरूप जीव देह धारणकर ‘देही’ के नाम से विख्यात होता है। यह काम जीव के इन्द्रिय, मन और बुद्धि में अधिष्ठान करते हुए जीव के ज्ञान को आवृत किये रहता है। काम का सूक्ष्म तत्त्व अविद्या है, यह अविद्या ही सर्वप्रथम विशुद्ध अहंकारस्वरूप अणुचैतन्य जीव को प्राकृत अहंकाररूप प्रथम आवरण प्रदान करती है और प्राकृत बुद्धि ही इसके आश्रयस्थल का कार्य करती है। बाद में प्राकृत अहंकार के परिपक्व होने पर बुद्धि मनरूप द्वितीय आश्रयस्थल प्रदान करती है। मन विषयों की ओर उन्मुख होकर इन्द्रियों के रूप में तृतीय अधिष्ठान प्रस्तुत करता है। इन तीनों आश्रयस्थलों का आश्रयकर काम जीव को जड़-विषयों में निक्षेप कर देता है। स्वतन्त्र इच्छापूर्वक मेरे प्रति उन्मुखता ‘विद्या’ एवं स्वतन्त्र इच्छापूर्वक मेरे प्रति विमुखता ‘अविद्या’ कही जाती है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।40।।
तस्मात् त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥41॥
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप का महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो।
भावानुवाद- शत्रु के आश्रयस्थल को जीत लेने से शत्रु पर विजय हो जाती है-यही नीति है। काम के आश्रयस्थल इन्द्रिय, मन और बुद्धि को जीतना क्रमशः अधिक कठिन है। इन्द्रियाँ दुर्जेय हैं, परन्तु ये मन और बुद्धि की अपेक्षा सुगमता से जीतने योग्य हैं, अतः तुम सर्वप्रथम इन्द्रियों को ही जीतो। इसके लिए ही ‘तस्मात्’ इत्यादि कह रहे हैं। यद्यपि कठिनता से वश में होने वाला मन ही परस्त्री, परद्रव्यादि की ओर धावित होता है, तथापि उन सबको आँख, कान, हाथ पाँव इत्यादि इन्द्रियों का कार्य समझकर इन्द्रियों को नियन्त्रित कर वहाँ मत जाने दो। तुम ‘पाप्मानं’ अर्थात् अति उग्र काम का त्याग करो, इस प्रकार इन्द्रियों को वशीभूत करते-करते इससे कालान्तर में मन भी काम से दूर हो जाएगा।।41।।
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