युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को वन जाने हेतु अनुमति देना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत चौथे अध्याय में वैशम्पायन जी ने व्यास जी के समझाने पर युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र को वन में जाने के लिए अनुमति देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

व्यास जी का युधिष्ठिर से अनुमति देने के लिए कहना

व्यास जी बोले- महाबाहु युधिष्ठिर! कुरुकुल को आनन्दित करने वाले महातेजस्वी धृतराष्ट्र जो कुछ कह रहे हैं, उसे बिना विचारे पूरा करो। अब ये राजा बूढ़े हो गये हैं, विशेषतः इनके सभी पुत्र नष्ट हो चुके हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि अब ये इस कष्ट को अधिक काल तक नहीं सह सकेंगे। महाराज! महाभागा गान्धारी परम विदुषी और करुणा का अनुभव करने वाली हैं; इसीलिये ये महान पुत्रशोक को धैर्यपूर्वक सहती चली आ रही हैं। मैं भी तुमसे यही कहता हूँ, तुम मेरी बात मानो। राजा धृतराष्ट्र को तुम्हारी ओर से वन में जाने की अनुमति मिलनी ही चाहिये, नहीं तो यहाँ रहने से इनकी व्यर्थ मृत्यु होगी। तुम इन्हें अवसर दो, जिससे ये नरेश प्राचीन राजर्षियों के पथ का अनुसरण कर सकें। समस्त राजर्षियों ने जीवन के अन्तिम भाग में वन का ही आश्रय लिया है।

व्यास जी के कहने पर युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को अनुमति देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अद्भुतकर्मा व्यास के ऐसा कहने पर महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर ने उन महामुनि को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘भगवन! आप ही हम लोगों के माननीय और आप ही हमारे गुरु हैं। इस राज्य और पुर के परम आधार भी आप ही हैं। भगवन! राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु हैं। धर्मतः पुत्र ही पिता की आज्ञा के अधीन होता है। (वह पिता को आज्ञा कैसे दे सकता है)’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ, महातेजस्वी, महाज्ञानी व्यास जी ने युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उन्हें समझाते हुए पुनः इस प्रकार कहा- ‘महाबाहु भरतनन्दन! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही ठीक है, तथापि राजा धृतराष्ट्र बूढे़ हो गये हैं और अन्तिम अवस्था में स्थित हैं। अतः अब ये भूपाल मेरी ओर तुम्हारी अनुमति लेकर तपस्या के द्वारा अपना मनोरथ सिद्ध करें। इनके शुभ कार्य में विघ्न न डालो। युधिष्ठिर! राजर्षियों का यही परम धर्म है कि युद्ध में अथवा वन में उनकी शास्त्रोक्त विधिपूर्वक मृत्यु हो। राजेन्द्र! तुम्हारे पिता राजा पाण्डु ने भी धृतराष्ट्र को गुरु के समान मानकर शिष्य भाव से इनकी सेवा की थी। इन्होंने रत्नमय पर्वतों से सुशोभित और प्रचुर दक्षिणा से सम्पन्न अनेक बड़े बड़े यज्ञ किये हैं, पृथ्वी का राज्य भोगा है और प्रजा का भली-भाँति पालन किया है। जब तुम वन में चले गये थे, उन दिनों तेरह वर्षों तक अपने पुत्र के अधीन रहने वाले विशाल राज्य का इन्होंने उपभोग किया और नाना प्रकार के धन दिये हैं। निष्पाप नरव्याघ्र! सेवकों सहित तुमने भी गुरु सेवा के भाव से इनकी तथा यशस्विनी गान्धारी देवी की आराधना की है। अतः तुम अपने पिता को वन में जाने की अनुमति दे दें; क्योंकि अब इनके तप करने का समय आया है। युधिष्ठिर! इनके मन में तुम्हारे ऊपर अणुमात्र भी रोष नहीं हैं’।

वैशम्पायन जी कहते हैं कि- राजन! यों कहकर महर्षि व्यास जी ने राजा युधिष्ठिर को राजी कर लिया और ‘बहुत अच्छा‘ कहकर जब युधिष्ठिर ने उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब वे वन में अपने आश्रम पर चले गये। भगवान व्यास के चले जाने पर राजा युधिष्ठिर ने अपने बूढ़े ताऊ धृतराष्ट्र से नम्रतापूर्वक धीरे धीरे कहा- ‘पिताजी! भगवान व्यास ने जो आज्ञा दी है और आपने जो कुछ करने का निश्चय किया है तथा महान धनुर्धर कृपाचार्य, विदुर, युयुत्सु और संजय जैसा कहेंगे, निस्संदेह मैं वैसा ही करूँगा; क्योंकि ये सब लोग इस कुल के हितैषी होने के कारण मेरे लिये माननीय हैं। किंतु नरेश्वर! इस समय आपके चरणों में मस्तक झुकाकर मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि पहले भोजन कर लीजिये, फिर आश्रम को जाइयेगा’।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-22

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