परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में पुत्रदर्शन पर्व के अंतर्गत अध्याय 33 में परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलने का वर्णन हुआ है।[1]

परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलने का वर्णन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– क्रोध और मात्‍सर्य से रहित तथा पापशून्‍य हुए वे सभी श्रेष्‍ठ पुरुष ब्रह्मर्षियों की बनायी हुई उत्तम प्रणाली का आश्रय ले एक-दूसरे से प्रेम पूर्वक मिले। उस समय देवलोक में रहने वाले देवताओं की भाँति उन सब के मन में हर्षोल्लास छा रहा था। राजन! पुत्र पिता-माता के साथ, स्त्री पति के साथ, भाई-भाई के साथ और मित्र-मित्र के साथ मिले। पाण्डव महाधनुर्धर कर्ण, सुभद्रा कुमार अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र-इन सब के साथ अत्यन्त हर्षपूर्वक मिले। भूपाल! तत्पश्चात् सब पाण्डवों ने कर्ण से प्रसन्नता-पूर्वक मिलकर उनके साथ सौहार्दपूर्ण बर्ताव किया। भरत भूषण! वे समस्त योद्धा एक-दूसरे से मिलकर बड़े प्रसन्न हुए। इस प्रकार मुनि की कृपा से वे सभी क्षत्रिय अपने क्रोध को भुलाकर शत्रु भाव छोड़कर परस्पर सौहार्द स्थापित करके मिले। इस तरह वे सब पुरुषसिंह कौरव तथा अन्य नरेश गुरुजनों, बान्धवों और पुत्रों के साथ मिले। सारी रात एक-दूसरे के साथ घूमते-फिरने के कारण उन सब के मन में बड़ी प्रसन्नता थी। स्वर्गवासियों के समान ही उन्हें वहाँ परम संतोष का अनुभव हुआ।

भरतश्रेष्ठ! एक-दूसरे से मिलकर उन योद्धाओं के मन में शोक, भय, त्रास, उद्वेग और अपयश को स्थान नहीं मिला। वहाँ आयी हुई स्त्रियाँ अपने पिताओं, भाइयों, पत्तियों और पुत्रों से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई। उनका सारा दुःख दूर हो गया। वे वीर और उनकी वे तरुणी स्त्रियाँ एक रात साथ-साथ विहार करके अन्त में एक-दूसरे की अनुमति ले परस्पर गले मिलकर जैसे आये थे उसी प्रकार चले जाने को उद्यत हुए। तब मुनिवर व्यास जी ने उन सब लोगों का विसर्जन कर दिया और वे महामना नरेश एक ही क्षण में सब के देखते-देखते पुण्यसलिला भागीरथी में गोता लगाकर अदृश्य हो गये। रथों और ध्वजाओं सहिस अपने-अपने लोकों में चले गये। कोई देवलोक में गये, कोई ब्रह्मलोक में, कुछ वरुण लोक में पधारे और कुछ कुबेर लोक में कितने ही नरेश भगवान सूर्य के लोक में चले गये। कितने ही राक्षसों और पिशाचों के लोकों में चले गये और कितने ही उत्तरकुरु में जा पहुँचे। इस प्रकार सब को विचित्र-विचित्र गतियों की प्राप्ति हुई थी और वे महामना वहीं से देवताओं के साथ अपने-अपने वाहनों और अनुचरोंसहित आये थे। उन सब के अदृश्य हो जाने पर कौरवों के हितकारी महातेजस्वी धर्मशील महामुनि व्यास जी ने कहा- ‘देवियों! तुम लोगों में से जो-जो सती-साध्वी स्त्रियाँ अपने-अपने पति के लोक को जाना चाहती हों, वे आलस्य त्याग कर तुरंत गंगा जी के जल में गोता लगावें।’ उनकी बात सुनकर उनमें श्रद्धा रखने वाली वे सती स्त्रियाँ अपने श्वशुर धृतराष्ट्र की आज्ञा ले गंगा जी के जल में समा गयीं।[1]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-21

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