धृतराष्ट्र द्वारा युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत पाँचवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र के द्वारा युधिष्ठिर को राजनीति के उपदेश देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र के द्वारा युधिष्ठिर को राजनीति के उपदेश देना

वैशम्पायन जी कहते है- तदनन्तर जनमेजय! राजा युधिष्ठिर की अनुमति पाकर प्रतापी राजा धृतराष्ट्र गान्धारी के साथ अपने भवन में गये। उस समय उनकी चलने फिरने की शक्ति बहुत कम हो गयी थी। वे बुद्धिमान भूपाल बूढ़े हाथी की भाँति पैदल चलते समय बड़ी कठिनाई से पैर उठाते थे। उस समय उनके पीछे पीछे ज्ञानी विदुर, सारथि संजय तथा शरद्वान के पुत्र महाधनुर्धर कृपाचार्य भी गये। राजन! घर में प्रवेश करके उन्होंने पूर्वाह्नकाल की धार्मिक क्रिया पूरी की; फिर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अन्न पान आदि से तृप्त करके स्वयं भी भोजन किया। भरतनन्दन! इसी प्रकार धर्म को जानने वाली मनस्विनी गान्धारी देवी ने भी कुन्ती सहित पुत्रवधुओं द्वारा विविध उपचारों से पूजित होकर आहार ग्रहण किया। कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र के भोजन कर लेने पर पाण्डव तथा विदुर आदि सब लोगों ने भी भोजन किया, फिर सब के सब धृतराष्ट्र की सेवा में उपस्थित हुए। महाराज! उस समय कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को एकान्त में अपने निकट बैठा जान धृतराष्ट्र ने उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘कुरुनन्दन! राजसिंह! इस आठ अंगों वाले राज्य में तुम सदा धर्म को ही आगे रखना और इसके संरक्षण और संचालन में कभी किसी तरह भी प्रमाद न करना। महाराज पाण्डुनन्दन! कुन्तीकुमार! राज्य की रक्षा धर्म से ही हो सकती है। इस बात को तुम स्वयं भी जानते हो तथापि मुझसे भी सुनो। युधिष्ठिर! विद्या में बढ़े चढ़े विद्वान पुरुषों का सदा ही संग किया करो। वे जो कुछ कहें, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और उसका बिना विचारे पालन करो। राजन! प्रातःकाल उठकर उन विद्वानों का यथायोग्य सत्कार करके कोई कार्य उपस्थित होने पर उनसे अपना कर्तव्य पूछो।

राजन! तात! भरतनन्दन! अपना हित करने की इच्छा से तुम्हारे द्वारा सम्मानित होने पर वे सर्वथा तुम्हारे हित की बात बतायेंगे। जैसे सारथि घोड़ों को काबू में रखता है, उसी प्रकार तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अधीन रखकर उनकी रक्षा करो। ऐसा करने से वे इन्द्रियाँ सुरक्षित धन की भाँति भविष्य में तुम्हारे लिये निश्चय ही हितकर होंगी। जो जाँचे बूझे हुए तथा निष्कपट भाव से काम करने वाले हों, जो पिता पितामहों के समय से काम देखते आ रहे हों तथा जो बाहर भीतर से शुद्ध, संयमी और जन्म एवं कर्म से भी पवित्र हों, ऐसे मन्त्रियों को ही सब तरह के उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यों में नियुक्त करना। जिनकी किसी अवसर पर परीक्षा कर ली गयी हो और जो अपने ही राज्य के भीतर निवास करने वाले हों, ऐसे अनेक जासूसों को भेजकर उनके द्वारा शत्रुओं का गुप्त भेद लेते रहना और प्रयत्नपूर्वक ऐसी चेष्टा करना, जिससे शत्रु तुम्हारा भेद न जान सकें। तुम्हारे नगर की रक्षा का पूर्ण प्रबन्ध रहना चाहिये। उसके चारों ओर की दीवारें तथा मुख्य द्वारा अत्यन्त सुदृढ़ होने चाहिये। बीच का सारा नगर ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं से भरा होना चाहिये। सब दिशाओं में छः चहारदीवारियाँ बननी चाहिये। नगर के सभी दरचाजे विस्तृत एवं विशाल हों। सब ओर उनकी रक्षा के लिये यन्त्र लगे हों तथा उन द्वारों का विभाग सुन्दर ढंग से सम्पन्न हो।[1] भारत! जिन मनुष्यों के कुल और शील अच्छी तरह ज्ञात हों, उन्हीं से तुम्हें काम लेना चाहिये। भोजन आदि के अवसरों पर सदा तुम्हें आत्मरक्षा पर ध्यान देना चाहिये। आहार विहार के समय तथा माला पहनने, शय्या पर सोने और आसनों पर बैठने के समय भी तुम्हें सावधानी के साथ अपनी रक्षा करनी चाहिये।

युधिष्ठिर! कुलीन, शीलवान, विद्वान, विश्वासपात्र एवं वृद्ध पुरुषों की अध्यक्षता में रखकर तुम्हें अन्तःपुर की स्त्रियों की रक्षा का सुन्दर प्रबन्ध करना चाहिये। राजन! तुम उन्हीं ब्राह्मणों को अपने मन्त्री बनाओ, जो विद्या में प्रवीण, विनयशील, कुलीन, धर्म और अर्थ में कुशल तथा सरल स्वभाव वाले हों। उन्हीं के साथ तुम गूढ़ विषय पर विचार करो; किंतु अधिक लोगों को साथ लेकर देर तक मन्त्रणा नहीं करनी चाहिये। सम्पूर्ण मन्त्रियों को अथवा उनमें से दो एक को किसी के बहाने चारों ओर से घिरे हुए बंद कमरे में या खुले मैदान में ले जाकर उनके साथ किसी गूढ़ विषय पर विचार करना। जहाँ अधिक घास फूस या झाड़ झंखाड़ न हो, ऐसे जंगल में भी गुप्त मन्त्रणा की जा सकती है; परंतु रात्रि के समय इन स्थानों में किसी तरह गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। मनुष्यों का अनुसरण करने वाले जो वानर और पक्षी आदि हैं, उन सबको तथा मूर्ख एवं पंगु मनुष्यों को भी मन्त्रणा गृह में नहीं आने देना चाहिये। गुप्त मन्त्रणा के दूसरों पर प्रकट हो जाने से राजाओं को जो संकट प्राप्त होते हैं, उनका किसी तरह समाधान नहीं किया जा सकता- ऐसा मेरा विश्वास है। शत्रुदमन नरेश! गुप्त मन्त्रणा फूट जाने पर जो दोष पैदा होते हैं और न फूटने से जो लाभ होते हैं, उनको तुम मन्त्रिमण्डल के समक्ष बारंबार बतलाते रहना। राजन! कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर! नगर और जनपद के लोगों का हृदय तुम्हारे प्रति शुद्ध है या अशुद्ध, इस बात का तुम्हें जैसे भी ज्ञान प्राप्त हो सके, वैसा उपाय करना। नरेश्वर! न्याय करने के काम पर तुम सदा ऐसे ही पुरुषों को नियुक्त करना, जो विश्वासपात्र, संतोषी और हितैषी हों तथा गुप्तचरों के द्वारा सदा उनके कार्यों पर दृष्टि रखना।

भरतनन्दन युधिष्ठिर! तुम्हें ऐसा विधान बनाना चाहिये, जिससे तुम्हारे नियुक्त किये हुए न्यायाधिकारी पुरुष अपराधियों के अपराध की मात्रा को भली-भाँति जानकर जो दण्डनीय हों, उन्हें ही उचित दण्ड दें। जो दूसरों से घूस लेने की रुचि रखते हों, परायी स्त्रियों से जिनका सम्पर्क हो, जो विशेषतः कठोर दण्ड देने के पक्षपाती हों, झूठा फैसला देते हों, जो कटुवादी, लोभी, दूसरों का धन हड़पने वाले, दुस्साहसी, सभाभवन और उद्यान आदि को नष्ट करने वाले तथा सभी वर्ण के लोगों को कलंकित करने वाले हों, उन न्यायाधिकारियों को देश काल का ध्यान रखते हुए सुवर्ण दण्ड अथवा प्राण दण्ड के द्वारा दण्डित करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर (नित्य नियम से निवृत्त होने के बाद) पहले तुम्हें उन लोगों से मिलना चाहिये, जो तुम्हारे खर्च बर्च के काम पर नियुक्त हों। उसके बाद आभूषण पहनने या भोजन करने के काम पर ध्यान देना चाहिये।[2] तत्पश्चात् सैनिकों का हर्ष और उत्साह बढ़ाते हुए उनसे मिलना चाहिये। दूतों और जासूसों से मिलने के लिये तुम्हारे लिये सर्वोत्तम समय संध्याकाल है। पहर भर रात बाकी रहते ही उठकर अगले दिन के कार्यक्रम का निश्चय कर लेना चाहिये। आधी रात और दोपहर के समय तुम्हें स्वयं घूम फिरकर प्रजा की अवस्था का निरीक्षण करना उचित है।

प्रचुर दक्षिणा देने वाले भरतश्रेष्ठ! काम करने के लिये सभी समय उपयोगी हैं तथा तुम्हें समय समय पर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत रहना चाहिये। तात! चक्र की भाँति सदा कार्यों का क्रम चलता रहता है, यह देखने में आता है। महाराज! नाना प्रकार के कोष का संग्रह करने के लिये तुम्हें सदा न्यायानुकूल प्रयत्न करना चाहिये। इसके विपरित अन्यायपूर्ण प्रयत्न को त्याग देना चाहिये। नरेश्वर! जो राजाओं के छिद्र देखा करते हैं, ऐसे राजविद्रोही शत्रुओं का गुप्तचरों द्वारा पता लगाकर विश्वसनीय पुरुषों द्वारा उन्हें दूर से ही मरवा डालना चाहिये। कुरुश्रेष्ठ! पहले काम देखकर सेवकों को नियुक्त करना चाहिये और अपने आश्रित मनुष्य योग्य हों या अयोग्य, उनसे काम अवश्य लेना चाहिये। तात! तुम्हारे सेनापति को दृढ़प्रतिज्ञ, शूरवीर, क्लेश सह सकने वाला, हितैषी, पुरुषार्थी और स्वामिभक्त होना चाहिये। पाण्डुनन्दन! तुम्हारे राज्य के अंदर रहने वाले जो कारीगर और शिल्पी तुम्हारा काम करें, तुम्हें उनके भरण पोषण का प्रबन्ध अवश्य करना चाहिये; जैसे गधों और बैलों से काम लेने वाले लोग उन्हें खाने का देते हैं। युधिष्ठिर! तुम्हें सदा ही स्वजनों और शत्रुओं के छिद्रों पर दृष्टि रखनी चाहिये। जनेश्वर! अपने देश में उत्पन्न होने वाले पुरुषों में से जो लोग अपने कार्य में विशेष कुशल और हितैषी हों, उन्हें उनके योग्य आजीविका देकर अनुग्रहपूर्वक अपनाना चाहिये। विद्वान राजा को उचित है कि वह गुणार्थी मनुष्य के गुण बढ़ाने का प्रयत्न करता रहे। उनके सम्बन्ध में तुम्हें कोई विचार नहीं करना चाहिये। वे तुम्हारे लिये सदा पर्वत के समान अविचल सहायक सिद्ध होंगे'।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-17
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 18-32
  3. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 5 श्लोक 33-43

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आश्रमवास पर्व

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पुत्रदर्शन पर्व

धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना | गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध | कुंती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताने का वर्णन | व्यास द्वारा कुंती को सांत्वना देना | व्यास द्वारा धृतराष्ट्र आदि के पूर्वजन्म का परिचय | व्यास के कहने पर सब लोगों का गंगा तटपर जान | व्यास के प्रभाव से कौरव-पाण्डवों का गंगा नदी से प्रकट होना | परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना | व्यास आज्ञा से विधवा क्षत्राणियों का अपने पतियों के लोक जाना | पुत्रदर्शन पर्व के श्रवण की महिमा | वैशम्पायन द्वारा जनमेजय की शंका का समाधान | व्यास की कृपा से जनमेजय को अपने पिता के दर्शन | व्यास की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि पाण्डवों को विदा करना | पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

नारदागमन पर्व

नारद का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का समाचार देना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर शोक करना | धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर युधिष्ठिर एवं अन्य पांडवों का विलाप | युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करना

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