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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेशकबूतर ने कहा- 'मेरे पास खाने की कोई वस्तु नहीं है। मैं तो रोज ले आता हूँ और इसी प्रकार जीवन-निर्वाह होता है।' फिर कुछ सोचकर उसने कहा- 'अच्छा क्षण भर ठहर जाइये, मैं आपके खाने का प्रबन्ध करता हूँ।' उसने फिर आग जलायी और तीन बार उसकी प्रदक्षिणा करके यह कहते हुए आग में कूद पड़ा कि 'महाशय! आप मेरी सेवा स्वीकार करें।' कबूतर की यह दशा देखकर बहेलिये का क्रूर हृदय पसीज गया। वह अपनी करतूत की निन्दा करता हुआ रोने लगा। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने अपनी लग्गी, सलाका, पिंजरा आदि फेंक दिया, कबूतरी को छोड़ दिया और अनशन करके शरीर को सुखा देने का निश्चय करके वहाँ से चल पड़ा। कबूतरी पिंजरे से बाहर निकलकर अपने पति के वियोग में विलाप करने लगी। अपने पति के साथ उसका सच्चा सम्बन्ध था। उसने अपना जीवन सार्थक करने का निश्चय कर लिया। वह भी आग में कूूद पड़ी। दोनों ही विमान पर बैठकर स्वर्ग गये। महात्माओं ने उनकी स्तुति की, देवताओं ने सम्मान किया और वे सुख से रहने लगे। व्याध ने भी उन्हें स्वर्ग जाते समय देखा। वन में दावाग्नि लग गयी और उसमें जलकर वह भी स्वर्ग गया। अतिथि--सत्कार और शरणागत रक्षा के फलस्वरुप न केवल सत्कार और रक्षा करने वालों को ही उत्तम गति प्राप्त होती है, बल्कि उनके द्वारा जिनका सत्कार और रक्षा होती है और उन्हें उत्तम गति प्राप्त करते हुए देखते हैं उनका भी भला ही होता है। अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य का सर्वोत्तम धर्म है। धर्म का स्वरुप बड़ा ही सूक्ष्म है। वह शारीरिक क्रियाओं से प्रारम्भ होकर अध्यात्म के सूक्ष्मतम भाग तक पहुँचाता है। धर्म से अपना जीवन सुधरता है, जाति और समाज का कल्याण होता है। संसार के समस्त जीवों को शान्ति मिलती है, सब लोकों में पवित्रता का संचार होता है। धर्म शरीर को शुद्ध कर देता है, इन्द्रियों में संयम ला देता है, मन का विक्षेप नष्ट कर देता है, बुद्धि विशुद्ध बना देता है। आत्मा को अपने निश्चल स्वरुप में स्थिर कर देता है और तो क्या कहें, धर्म परमात्मा का स्वरुप है। धर्म से बढ़कर और कुछ नहीं है। यह सारा जगत् धर्म से ही पैदा होता है, धर्म से स्थित है और धर्म में ही समा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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