भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 87

श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

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पितामह का उपदेश

अपनी बुद्धि जिस सत्य का प्रत्यक्ष होता है, यदि उसी सत्य का प्रत्यक्ष सब बुद्धियों के द्वारा होता, तब तो कहना ही क्या था। वह एक असन्दिग्ध सत्य होता; परंतु बुद्धि सबकी पृथक-पृथक है और सबका प्रत्यक्ष भी पृथक-पृथक है। बुद्धियों की तो बात ही क्या, ये जो रुप अपनी-अपनी आँखों से देख रहे हैं हम लोग, वह भी एक प्रकार का ही नहीं है। सबकी आँख एक ही सतह पर नहीं हैं और एक ही प्रकार की शक्ति भी नहीं रखतीं। सबका क्षितिज भिन्न-भिन्न दूरी पर है। एक वृक्ष को सब समान मोटा नहीं देखते। एक ही व्यक्ति को सब एक ही रंग-रुप का नहीं देखते। इसका कारण आँखों का तारतम्य है। इसी प्रकार बुद्धियों में भी तारतम्य हुआ करता है। सब सत्य के विभिन्न प्रकार का दर्शन करते हैं। इसी से किसी का बौद्धिक ज्ञान चाहे जितना ऊँचा हो और वह अपने बौद्धिक निर्णय को चाहे जितनी युक्तियों से सिद्ध करता हो, उसका वह ज्ञान और वे युक्तियाँ सर्वथा प्रामाणिक नहीं हैं। जगत् में जो बहुत-से मत-मतान्तर और सैद्धान्तिक भेद हुए हैं, उनके मूल में यही बुद्धि की विभिन्नता स्थित है। सबने सत्य कहा है, परंतु उस सत्य में कहने वाले का व्यक्तित्व और उसकी व्यक्तिगत बुद्धि सम्मिलित है। वही परम सत्य है-यह बात जोर देकर नहीं कही जा सकती।

परंतु एक ऐसा भी ज्ञान है जो सर्वदा एकरस, एकरुप, अविचल और निर्विकार है, जो व्यक्ति और उनकी बुद्धियों के विभिन्न होने पर भी विभिन्न नहीं होता। जगत् के ज्ञान की ओर दृष्टि रखकर उसे ज्ञान कहने में हिचकिचाहट जो अवश्य होती है, परंतु इसके अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं है, जिसके द्वारा अपना भाव प्रकट किया जा सके। वह ज्ञान क्या है? वह स्वयं आत्मा है, परमात्मा है, भगवान् श्रीकृष्ण है। वे जिसके हृदय में प्रकट हो जाते हैं, उसका व्यक्तित्व लुप्त हो जाता है और उसके द्वारा परम सत्य विशुद्ध ज्ञान का विस्तार होने लगता है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण का दिया हुआ ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। अपनी बुद्धि से प्राप्त हुआ ज्ञान तो सर्वथा अप्रामाणिक और आश्रयहीन ज्ञान है। इसी से महात्मा लोग जब तक भगवान् से ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते; तब तक अपने बौद्धिक ज्ञान का प्रचार नहीं करते; क्योंकि वह प्रचार तो अपने व्यक्तित्व का प्रचार है, जो किसी-न-किसी रुप में भगवान् के ज्ञान का आवरण ही है। हाँ, तो अब तक यह बात कही गयी कि महात्मा लोग अपने व्यक्तिगत ज्ञान का नहीं, भगवत्-प्रदत्त ज्ञान का विस्तार करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. वंश परिचय और जन्म 1
2. पिता के लिये महान् त्याग 6
3. चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक 13
4. कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यन 24
5. पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेश 30
6. युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध 34
7. विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारी 42
8. महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी 51
9. भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन 63
10. श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध 81
11. पितामह का उपदेश 87
12. भीष्म के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तिम स्तुति और देह-त्याग 100
13. महाभारत का दिव्य उपदेश 105
अंतिम पृष्ठ 108

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