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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पिता के लिये महान् त्यागसंसार का अर्थ है सरकने वाला। अर्थात् निरन्तर परिवर्तन होना ही संसार का स्वरुप है। जो आज प्रिय है वह कल अप्रिय हो जायेगा, जो आज अप्रिय है वह कल प्रिय हो जायेगा। प्रतिक्षण निकट की वस्तुऐं दूर और दूर की वस्तुऐं एक साथ होती रहती हैं। इस अनादि काला से बहती हुई धारा में न जाने कहाँ-कहाँ से आ-आकर तिनके के समान ये सब वस्तुएँ एक साथ हो जाती हैं, क्षण भर ही साथ बहती हैं और अगले ही क्षण में पृथक्-पृथक् हो जाती हैं। कोई प्राणी चाहे कि मैं इस संसार की अमुक वस्तु को सर्वदा अपने साथ ही रखूँ या मैं उसके साथ ही रहूँ तो यह असम्भव है। कभी नहीं हो सकता। जिस गंगा के लिये महाभिषक् ने ब्रह्म सभा के नियम का उल्लंघन करके उन्हें अपनाना चाहा था, जिनकी प्रियता के वश होकर जिन्हें रखने के लिये उन्होंने सात पुत्रों की हत्या अपनी आँखों से देखी थी, वे गंगा शान्तनु को छोड़कर चली गयीं। जिस पुत्र को रखने के लिये शान्तनु ने गंगा से की हुई प्रतिज्ञा का उल्लंघन किया और गंगा से बिछोह होना भी स्वीकार किया, चाहे थोड़े दिनों के लिये क्यों न हो, वह पुत्र भी गंगा के साथ ही चला गया। शान्तनु की आँखें खुलीं। उनकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म की ओर तो पहले से ही थी- अब और अधिक हो गयी। उनके राज्य में कोई प्रजा दु:खी नहीं थी। सब लोग यज्ञ, दान और तपस्या में तत्पर हो गये। वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था सुदृढ़ हो गयी। शान्तनु के हृदय में किसी के प्रति राग-द्धेष नहीं था। उनकी धर्मज्ञता, सत्यवादिता, सरलता चारों ओर प्रसिद्ध थी। उनके पराक्रम का सब लोग सम्मान करते थे। अपार शक्ति होने पर भी वे पृथ्वी के समान क्षमाशील थे। कोई किसी प्राणी को दु:ख नहीं देता था, उनके राज्य में किसी जीव की हिंसा नहीं होती थी। वे दु:खी, अनाथ, पशु-पक्षी आदि को अपना पुत्र समझते थे। उनके प्रभाव से सारी प्रजा उनके समान ही धर्मपरायण हो रही थी और यही कारण है कि सब राजाओं ने मिलकर उन्हें राजराजेश्वर सम्राट् की पदवी दी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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