भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 7

श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

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पिता के लिये महान् त्याग

उनके मन में एक ही चिन्ता थी। अपने पुत्र देवव्रत को देखने के लिये वे लालायित रहते थे। वे बराबर उन्हीं के बारे में सोचा करते थे और किस प्रकार मेरा पुत्र प्राप्त होगा इसके लिये व्याकुल रहते थे। ऐसे धर्मनिष्ठ और भगवत्परायण पुरुष की अभिलाषा पूर्ण न हो यह आश्चर्य की बात है: परंतु उनके पुत्र के मिलने में जो विलम्ब हो रहा था, वह भी उनके और उनके पुत्र के हित के लिये हो रहा था: क्योंकि भगवान् का प्रत्येक विधान ही भगवान् के पूर्ण अनुग्रह एवं प्रेम में भरा ही होता है और सारे जगत् के लिये कल्याणकारी होता है। राजर्षि शान्तनु भी भगवान् के विधान पर विश्वास करके उन्हीं के अनुग्रह की प्रतीक्षा करते रहे। एक-न-एक दिन उनकी अभिलाषा पूर्ण होगी ही।

एक दिन राजर्षि शान्तनु घूमते-फिरते गंगा तट पर पहुँच गये। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने देखा कि गंगा का जल बहुत ही घट गया है। वे सोचने लगे, क्या बात है कि आज गंगा सूख-सी रही हैं, उनकी वह बड़ी धारा नहीं दीखती। वे गंगा के किनारे-किनारे जिधर से जल आ रहा था, उधर ही बढ़ने लगे। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि एक लम्बा-चौड़ा बड़े सुन्दर डील-डौल का सुगठित और सुन्दर शरीर वाला इन्द्र के समान तेजस्वी बालक अपने बाणों से गंगा की धारा रोककर दिव्य अस्त्रों का प्रयोग कर रहा है। बालक के इस अमानुषिक और अदभुत कार्य को देखकर वे बहुत चकराये। उन्होंने जन्म के समय ही केवल एक बार अपने पुत्र को देखा था, इसलिये वे अपने इस तेजस्वी कुमार को नहीं पहचान सके: परन्तु वह बालक अपने पिता को पहचानता था। उसने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और अपनी ओर आकर्षित करने के लिये वह वहीं अन्तर्धान हो गया। महाराज शान्तनु ने आश्चर्य चकित होकर उसे इधर-उधर ढूंढा; परंतु वे उसे प्राप्त नहीं कर सके।

उन्होंने गंगाजी को सम्बोधन करके कहा-'देवि! अभी जो यह बालक अन्तर्धान हो गया है, यह कौन है, किसका है? मैं फिर उसे देखना चाहता हूँ।' राजा की प्रार्थना सुनकर गंगा नदी की अधिष्ठात्री देवी वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर बालक देवव्रत का दाहिना हाथ पकड़कर स्त्री-वेश में राजा के सामने आयीं। गंगा ने उन्हें बतलाया कि 'मेरे आठवें गर्भ से उत्पन्न होने वाला बालक यही है, इसने सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन कर लिया है। युद्ध में कोई भी वीर इसका सामना नहीं कर सकता, इसका वीर्य और विक्रम अपार है। आपके इस बालक ने महर्षि वशिष्ठ से सम्पूर्ण वेदों और वेदांगों का अध्ययन किया है। असुरों के गुरु शुक्राचार्य जिन विधाओं को जानते हैं, देवताओं के गुरु बृहस्पति जो कुछ जानते हैं, इस बालक ने वह सब कुछ सीख लिया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. वंश परिचय और जन्म 1
2. पिता के लिये महान् त्याग 6
3. चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक 13
4. कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यन 24
5. पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेश 30
6. युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध 34
7. विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारी 42
8. महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी 51
9. भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन 63
10. श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध 81
11. पितामह का उपदेश 87
12. भीष्म के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तिम स्तुति और देह-त्याग 100
13. महाभारत का दिव्य उपदेश 105
अंतिम पृष्ठ 108

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