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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दीभगवान् के अवतार का प्रयोजन है अधर्म-राज्य का नाश और धर्म-राज्य की स्थापना। जब पृथ्वी पर अत्याचार और अत्याचारियों की बढ़ती होती है, तब उनका नाश करके धर्म और धार्मिकों की बढ़ती के लिये भगवान् का अवतार हुआ करता है। भगवान् के साथ ही बहुत-से देवता और बहुत-से महापुरुष भी अवतार ग्रहण किया करते हैं। उनके अवतार का यही उद्देश्य होता है कि वे भगवान् की लीला में सहायता पहुँचावें। युधिष्ठिर, अर्जुन आदि ऐसे ही अवतार हैं। यदि भगवान् चाहते तो उनके संकल्प मात्र से युधिष्ठिर को राज्य मिल सकता था: परंतु भगवान् को ऐसा करना अभीष्ट नहीं था। वे दैवी सम्पत्ति वालों और आसुरी सम्पत्ति वालों में युद्ध कराकर यह स्पष्ट दिखा देना चाहते थे कि मैं देवी सम्पत्ति वालों की सहायता करता हूँ। एक प्रयोजन और था, उन दिनों क्षत्रियों के रुप में बहुत-से दैत्यों ने जन्म ग्रहण किया था, वे लुक-छिपकर और कभी-कभी प्रकट होकर धर्म के विरुद्ध आचरण करते थे। उन दोनों प्रकार के दैत्यों का नाश कराना था। उनके लिये स्वयं शस्त्र उठाने की कोई आवश्यकता न समझकर भगवान् ने उन्हें पाण्डव या कौरवों के पक्ष में बुला लिया। दोनों ही पक्ष में दैत्यों की पर्याप्त संख्या थी, एक पक्ष में घटोत्कच आदि थे: तथा दूसरे पक्ष में अलम्बुष आदि उससे भी बढ़कर थे। अब भगवान् के साथ अवतार लेने वाले ऐसे देवता और महापुरुषों की भी आवश्यकता थी कि जो स्वयं तो धर्म के विरोधी पक्ष में रहें, परंतु जो धर्म की आड़ में रहकर अपने को धर्म के पक्ष में बताकर धर्मराज की ओर से लड़ने वाले दैत्य हैं उनका भी वध करें। यह काम धर्मराज के पक्ष में रहकर लड़ने वाले धार्मिकों की अपेक्षा भगवान् के बड़े प्रिय भक्तों का होना चाहिये। जो भगवान् के साथ रहकर दैत्यों का वध करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कुछ कहना ही नहीं है: परंतु जो बाहर से भगवान् के विरोधी पक्ष में रहकर और तो क्या स्वयं भगवान् पर बाण चलाकर भगवान् की इच्छा पूर्ण करते हैं, उनके अवतार के कार्य में सहायता पहुँचाते हैं, वे बहुत बड़े महान् पुरुष हैं और वे स्वयं चाहे न जानें, परंतु भगवान् का बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, इसमें संदेह नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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