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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारीवे पहले धर्म-बन्धन में बंधे हुए थे। इसी से अब तक क्लेश सहते रहे। अब उनके शान्त होने की कोई आशा नहीं है। तुम लोगों ने भरी सभा में द्रौपदी का जो अपमान किया है: वह उन लोगों को कभी भूल नहीं सकता। धर्म के भय से ही उस समय उसका प्रतिवाद नहीं किया गया। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वनवास और अज्ञातवास किया है। अब धर्म का बन्धन नहीं है। वे अस्त्र-विद्या में प्रवीण हैं। उनके पास अमोघ शस्त्रास्त्र विद्यमान हैं। भीम और अर्जुन जैसे वीर हैं, श्रीकृष्ण जैसे सहायक हैं, वे कदापि चुप नहीं बैठ सकते। तुम तो जानते ही हो कि विराटनगरी में अकेले अर्जुन ने हम सबको हरा दिया। गन्धर्व के हाथ से अर्जुन ने ही तुम्हें छुड़ाया। यह अर्जुन के पराक्रम का नमूना मात्र है। उनसे मेल करने में ही कुरुकुल की रक्षा है। सब सहायकों को लौटा दो। शस्त्रहीन होकर उनसे मिलो। हम दोनों वृद्ध जो कुछ कह रहे हैं, तुम्हारे हित के लिये ही कह रहे हैं। हमारी बात मानो और बुद्धिमानी का काम करो।' दुर्योधन ने किसी की बात नहीं मानी, युद्ध करना ही निश्चित रहा। दोनों ही ओर से बहुत कुछ तैयारी तो पहले ही हो चुकी थी। रही-सही तैयारी भी पूरी हो गयी। अब केवल युद्ध का डंका बजने भर की देर थी। इस अवसर पर भीष्म के सामने बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई। जिस दिन से उन्होंने राज्य त्याग का संकल्प किया था, उस दिन से उनके मन में फिर यह बात कभी नहीं आयी कि यह राज्य मेरा है या इससे मेरा कुछ सम्बन्ध है। जब सहायता की आवश्यकता पड़ी, कर दी; परामर्श की आवश्यकता पड़ी, दे दिया, नहीं तो चुपचाप एकान्त में रहकर भजन करते रहे। वे अपने मन में ऐसा समझते थे कि दुर्योधन ने मेरे रहने के लिये स्थान दिया है, वह मेरे भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध करता है, इसलिये यह शरीर उसी के अन्न से पुष्ट, उसी का है। जैसे एक योद्धा राजाश्रय में रहकर जीवन-निर्वाह करता है, वैसे ही मैं भी दुर्योधन के आश्रय में रहकर दुर्योधन के अन्न से पला हूँ। मुझे चाहिये कि एक साधारण योद्धा की भाँति लड़कर दुर्योधन के लिये अपने प्राण दे दूँ। दूसरी ओर मन मे यह बात आती कि युधिष्ठिर धर्म के पक्ष पर हैं, वे स्वयं धर्म हैं। मुझे उन्हीं की ओर रहना चाहिये। इन दोनों बातों से वे कुछ चिन्तित हुए, परंतु अन्त में यही निश्चय हुआ कि भगवान् की जैसी इच्छा होगी: वही होगा, पहले से इसके उधेड़-बुन में पड़ने की क्या आवश्यकता है। वे निश्चिन्त होकर भगवान् का चिन्तन करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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