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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारीभीष्म पितामह ने कर्ण की बात सुनकर धृतराष्ट्र से कहा- 'धृतराष्ट्र! कर्ण अपने मुँह से कई बार अपनी बढ़ाई करता है कि 'मैं पाण्डवों को मारूँगा; परंतु मैं दोनों का बलाबल जानता हूँ। यह पाण्डवों के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है। इसके कारण तुम्हारे दुष्ट पुत्रों पर बड़ी भारी विपत्ति आने वाली है। दुर्योधन इसी के बल पर फूला-फूला फिरता है। इसी के कारण उसने देवता स्वरुप पाण्डवों का तिरस्कार किया है। कर्ण ने अब तक किया ही क्या है? अर्जुन ने इसके सामने ही इसके भाई विकर्ण को मार डाला, तब कर्ण का पौरुष कहाँ गया था? जब दुर्योधन आदि सौ कौरवों को विवश करके अकेले अर्जुन ने उनके कपड़े छीन लिये, तब क्या कर्ण सोया हुआ था? गन्धर्व जब कौरवों को पकड़कर ले गये थे, तब कर्ण ने उनका क्या कर लिया था? पाण्डवों ने ही उस समय कौरवों की रक्षा की थी। यह कर्ण अपने मुँह से अपनी बढ़ाई करता है और धर्म एवं अर्थ दोनों को नाश करने वाली सलाह दिया करता है। इसकी बात न मानकर पाण्डवों से सन्धि करों और उनका हिस्सा उन्हें दे दो।' द्रोणाचार्य ने पितामह की बात का समर्थन किया। धृतराष्ट्र के मन में उस समय न जाने क्या बात थी। उन्होंने पितामह के वचनों पर ध्यान नहीं दिया, वे संजय से बात करने लगे। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से सन्धि का संदेश लेकर हस्तिनापुर आये। दुर्योधन ने भीतर-ही-भीतर यह षडयन्त्र रचा कि श्रीकृष्ण को कैद कर लिया जाये। जब यह बात भीष्म को मालूम हुई, तब उन्होंने बड़े कड़े शब्दों में धृतराष्ट्र से कहा-'धृतराष्ट्र! तुम्हारा पुत्र बड़ा नासमझ है। यह ऐसी ही बात सोचता है जिससे कुल का अनर्थ हो। इष्ट-मित्रों के समझाने पर भी यह ठीक रास्ते पर नहीं चलता। तुम भी अपने शुभचिन्तकों की बात पर ध्यान न देकर इस कुमार्गगामी पापी पुत्र की बात मानते हो और उसी के अनुसार चलते हो। यदि दुर्योधन ने श्रीकृष्ण का कुछ अनिष्ट किया तो वह उनके क्रोध की आग में भस्म हो जायेगा। यह धर्म से च्युत हो गया है। इसकी ऐसी अनर्थकारी बात मैं नहीं सुनना चाहता।' इतना कहकर भीष्म पितामह वहाँ से उठकर चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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