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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेशआजकल भीष्म बड़े उदासीन रहते थे। दुर्योधन उनकी सेवा तो बड़ी करता था, परंतु राज-काज के सम्बन्ध में उनसे कोई सलाह नहीं लेता था। विदुर सलाह देते भी थे तो उनकी सुनी नहीं जाती थी। इसीलिये हस्तिनापुर से वारणावत जाते समय पाण्डवों ने भीष्म के चरणों में प्रणाम किया, परंतु भीष्म ने कुछ कहा नहीं। वे चले गये। जब द्रौपदी के स्वयंवर में पाँचों पाण्डव प्रकट हुए और इसका समाचार हस्तिनापुर के लोगों को मिला, तब धृतराष्ट्र और दुर्योधन को बड़ी चिन्ता हुई। वे तो समझते थे कि वारणावत नगर के लाक्षागृह में पाण्डव जल गये और अब हमारा राज्य निष्कण्टक हो गया, परंतु पाण्डव बचे हुए थे। अब वे सोचने लगे कि पाण्डवों को किस प्रकार नष्ट किया जाये। परिस्थिति बड़ी संगीन थी। भीष्म को बुलाया गया। भीष्म ने कहा- 'मेरे लिये कौरव और पाण्डव एक-सरीखे हैं। मैं दोनों से ही प्रेम करता हूँ। मैं तुम्हारी ही भाँति पाण्डवों की भी रक्षा चाहता हूँ। तुम उनसे लड़ाई मत करो, मेल करके आधा राज्य दे दो।' उन्होंने आगे कहा- 'दुर्योधन! जैसे तुम अपने को इस राज्य का उत्तराधिकारी समझते हो, वैसे ही युधिष्ठिर भी हैं। यदि यह राज्य उन्हें नहीं मिलेगा तो तुम्हें कैसे मिल सकता है। तुमने अधर्म से इसे हथिया लिया है, यह उन्हें अवश्य मिलना चाहिये। धृष्टता से नम्रता उत्तम है। अपकीर्ति से कीर्ति उत्तम है। कलंकित राजा का जीवन भार है। अपने पूर्वपुरुषों के योग्य आचरण करना चाहिये। यह बड़े आनन्द की बात है कि पाण्डव सकुशल जीवित हैं। दुष्ट पुरोचन जो उन्हें लाक्षागृह में जलाना चाहता था, वह आप मर गया। जबसे मैंने सुना कि कुन्ती के साथ पाँचों पाण्डव जल गये, तब से मैं बड़ा दु:खी रहता था। मेरे विचार से उसमें पुरोचन का कोई दोष नहीं था, तुम लोगों का ही दोष था। उनके जीवित रहने के समाचार से तुम्हारी अपकीर्ति मिट गयी, अब तुम आनन्द-उत्सव मनाओ। पाण्डव बड़े धार्मिक, एक हृदय और एक-दूसरे से अत्यन्त प्रेम रखने वाले हैं। उनका इस राज्य में समान भाग है, वह उन्हें मिलना ही चाहिये। उन्हें जीतने की सामर्थ्य भी तुम लोगों में नहीं है। वे अधर्मपूर्वक इस राज्य से निकाले गये हैं, उनका हिस्सा अवश्य-अवश्य मिलना चाहिये। दुर्योधन! यदि तुम्हारे हृदय में धर्म के प्रति तनिक भी आस्था है, यदि तुम अपने बूढ़े पितामह को प्रसन्न रखना चाहते हो और यदि संसार में कौरवों की कीर्ति एवं कल्याण चाहते हो तो पाण्डवों का आधा राज्य उन्हें दे दो।' द्रोणाचार्य और विदुर ने भीष्म पितामह की बात का समर्थन किया। दुर्योधन की आन्तरिक इच्छा न होने पर भी उन्हें प्रसन्न करने के लिये उसने पाण्डवों को बुलाना स्वीकार कर लिया। विदुर भेजे गये। श्रीकृष्ण एवं द्रुपद आदि की सलाह से पाण्डव हस्तिनापुर आये। भीष्म को बड़ी प्रसन्नता हुई। पाण्डव द्रौपदी के साथ सुखपूर्वक रहने लगे, वे एक प्रकार से दुर्योधन के किये हुए अपकारों को भूल गये। श्रीकृष्ण की सहायता से खाण्डव-वन का दाह करके मयकी बनायी हुई दिव्य सभा में राज-काज करने लगे। पाँचों भाइयों के पाँच पुत्र हुए। बड़े-बड़े राजाओं को परास्त करके उन्होंने अपने राज्य का विस्तार कर लिया। दैवी सम्पत्ति की अभिवृद्धि हुई। उनकी उन्नति देखकर भीष्म पितामह बहुत प्रसन्न रहते और भगवत् कृपा का अनुभव करते हुए तीर्थयात्रा, सत्संग और भजन में लगे रहते। इस प्रकार दिन बीतने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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