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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेशएक दिन द्रुपद के अपमान से खिन्न होकर द्रोणाचार्य वहाँ आये। उन्होंने परशुराम आदि शस्त्राचार्यों से सम्पूर्ण शस्त्रास्त्र-विद्या प्राप्त कर ली थी। बालकों को खेलते हुए देखकर उनके मन में भीष्म से परिचय प्राप्त करने की इच्छा हुई। उन्होंने युधिष्ठिर, दुर्योधन आदि बालकों को ऐसा अस्त्र कौशल दिखाया, जिससे वे सब मुग्ध हो गये और द्रोणाचार्य की प्रेरणा से उन्होंने जाकर भीष्म से उनके आने का समाचार कहा। भीष्म को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने द्रोणाचार्य का सम्मान करके आग्रह किया कि 'आप यहीं रहकर मेरे पोतों को धनुर्वेद की शिक्षा दीजिये। आपके सम्मान में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होगी। कौरवों की सम्पत्ति आपकी ही सम्पत्ति है, हम सब आपकी आज्ञा का पालन करेंगे। हमारे बड़े सौभाग्य से आपका शुभागमन हुआ है। हम आपकी इस कृपा के बड़े आभारी हैं।' द्रोण ने स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र उनसे दीक्षित हुए और शस्त्रास्त्र के रहस्य, प्रयोग एवं उपसंहार सीखने लगे। कर्ण आदि दूसरे भी उन्हीं के पास शिक्षा प्राप्त करने लगे। पाण्डवों ने और विशेष करके अर्जुन ने द्रोणाचार्य की बड़ी सेवा की। उन्होंने प्रसन्न होकर अर्जुन को ब्रहमास्त्र तक की शिक्षा दी। वहाँ भी दुर्योधन पाण्डवों से बड़ी लाग-डांट रखता था। उन्हें हराने के लिये उसने कर्ण से मित्रता कर ली। उसके मन में यह बात बार-बार आती रहती कि किस प्रकार पाण्डवों को नीचा दिखाऊँ? उन्हें कैद कर लूँ अथवा मरवा डालूँ: परंतु पाण्डवों के मन में उसके विरुद्ध कोई बात नहीं आती। वे बड़ी शान्ति और सदभाव से उसके साथ मित्रता बनाये रखने की चेष्टा करते। एक दिन राजकुमारों की शिक्षा समाप्त हुई, भीम आदि के सामने परीक्षा देकर उन्होंने सफलता प्राप्त की। अर्जुन और कर्ण सबसे बढ़कर निकले। अर्जुन ने द्रोणाचार्य को प्रसन्न करने के लिये द्रुपद को जीत लिया और फिर उनकी द्रोणाचार्य से मित्रता हो गयी। पाण्डवों के उत्कर्ष से न केवल दुर्योधन ही बल्कि उसके सारे भाई और स्वयं धृतराष्ट्र भी चिन्तित हो उठे। वे सब-के-सब पाण्डवों के नाश का उपाय सोचने लगे। अन्त में यह सलाह हुई कि पाण्डवों को वारणावत नगर में रख दिया जाये। दुर्योधन के मन में यह कपट था कि वहाँ लाख के महल में उन्हें जला दिया जायेगा। धृतराष्ट्र ने कहा-'यदि हम लोग पाण्डवों के साथ कोई अन्याय करेंगे तो महात्मा भीष्म अप्रसन्न हो जायेंगे।' परंतु दुर्योधन ने कहा-'आप उनसे डरिये नहीं। वे हम दोनों को समान दृष्टि से देखते हैं, वे इस झगड़े में उदासीन ही रहेंगे।' अन्त में धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को वारणावत भेज दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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