भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 19

श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

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चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक

ऋषियों से अम्बा की यह बात हो ही रही थी कि वहाँ होत्रवाहन ऋषि आ पँहुचे। आतिथ्य-सत्कार के पश्चात् जब उन्हें अम्बा का परिचय प्राप्त हुआ, तब उन्होंने उसके साथ बड़ी सुहानुभूति प्रकट की। वे नाते में अम्बा के नाना लगते थे। उन्होंने अम्बा को धीरज दिया और उसकी रक्षा की जिम्मेवारी अपने उपर ली। उन्होंने अम्बा को यह सलाह दी कि 'तुम भृगुवंशी परशुराम की शरण लो, मेरा नाम बताओ और उनसे सहायता की प्रार्थना करो। वे अवश्य तुम्हारा दु:ख दूर करेंगे।' ये बातें हो ही रही थीं कि अकस्मात् परशुराम के शिष्य अकृतव्रण आ पँहुचे और पूछने पर उन्होंने बतलाया कि श्री परशुरामजी महाराज कल ही यहाँ पधार रहे हैं। अकृतव्रण ने भी कुछ ऐसी बातें कहीं जिससे भीष्म का दोष सिद्ध हुआ और अम्बा के मन में उनसे बदला लेने की भावना और भी दृढ़ हो गयी।

दूसरे दिन प्रात:काल ही महात्मा परशुराम वहाँ पधारे। सब ऋषियों ने उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। होत्रवाहन ने अम्बा की कथा कह सुनायी और अम्बा ने बड़े करुण स्वर में उनसे प्रार्थना की कि 'आप भीष्म को दण्ड दीजिये।' परशुराम ने कहा- 'मैं शस्त्र त्याग कर चुका हूँ। भीष्म बड़े सज्जन और पूजनीय हैं, वे मेरी बात मान लेंगे। तुम घबराओ मत।' परंतु अम्बा इसी हठ पर डटी रही कि 'आप भीष्म को मार डालिये।' अकृतव्रण ने भी परशुरामजी से यही आग्रह किया कि 'यदि भीष्म आपकी बात न मानें, पराजय स्वीकार न करें तो भीष्म के साथ युद्ध करना और उन्हें मार डालना आपका कर्तव्य है।' परशुरामजी को भी अपनी क्षत्रियों का नाश करने वाली प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया। पुराने संस्कार जाग उठे। उन्होंने ऋषियों के सामने ही कहा-'पहले तो मैं यों ही भीष्म को मनाने की चेष्टा करुँगा। यदि वे मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं उन्हें मारने में कोई कोर-कसर नहीं करुँगा।'

परशुराम के साथ अम्बा, होत्रवाहन और बहुत-से ऋषि कुरुक्षेत्र की पुण्य भूमि में आये। वहाँ सब सरस्वती के किनारे ठहर गये और भीष्म को सूचना दे दी कि हम लोग आ गये हैं। भीष्म उसी समय अपने ब्राह्मण, पुरोहित आदि को लेकर उनका स्वागत करने के लिये उनके पास पँहुच गये। परशुराम ने उनका आतिथ्य स्वीकार किया, कुशल-मंगल पूछा और भीष्म से यह कहा-'भीष्म! तुमने अम्बा को हरकर बड़ा अपराध किया है: क्योंकि यह पहले से ही शाल्व पर आसक्त थी। एक तो अकाम होकर भी तुमने हरण किया, दूसरे इसका त्याग कर दिया। अब इस कन्या को समाज का कोई धर्मात्मा पुरुष कैसे ग्रहण कर सकता है? यह सब तुम्हारे ही कारण हुआ है। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम इसे ग्रहण करो और अपने धर्म की रक्षा करो। इसका यों अपमान नहीं करना चाहिये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. वंश परिचय और जन्म 1
2. पिता के लिये महान् त्याग 6
3. चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक 13
4. कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यन 24
5. पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेश 30
6. युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध 34
7. विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारी 42
8. महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी 51
9. भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन 63
10. श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध 81
11. पितामह का उपदेश 87
12. भीष्म के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तिम स्तुति और देह-त्याग 100
13. महाभारत का दिव्य उपदेश 105
अंतिम पृष्ठ 108

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