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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायदेखो, एक बार चित्ररथ (गन्धर्व) ने कौरवों का हरण कर लिया था। तब भीमसेन बड़े ही प्रसन्न हुए और बोले कि अच्छा हुआ, बिना मारे ही दुश्मन मर गये। लेकिन जब युधिष्ठिर के पास समाचार आया तो वे बोले कि हमारा और कौरवों का जो विरोध है वह परस्पर का विरोध है। जब तक हममें परस्पर विरोध है, तब तक हम पांच हैं और वे सौ हैं, परंतु ‘अन्यैः सह विरोधे तु वयं पञ्चोत्तरं शतम्’- दूसरे के साथ विरोध होने पर हम एक सौ पाँच हैं। अब अर्जुन को ख्याल आया कि हम न तो युद्ध और भिक्षा- विषयक निर्णय पर पहुँचे हैं और न ही जय पराजय के निर्मय पर पहुँचे हैं। जय होने पर भी संदेह है कि क्या प्रयोजन सिद्ध होगा! ऐसी स्थिति में क्यों न किसी से पूछ लिया जाय? जो बात अपनी समझ में न आये, उसको किसी से पूछ लेन चाहिए। इसमें संकोच नहीं करना चाहिए। इसलिए क्यों न हम श्रीकृष्ण से ही पूछ लें! सच पूछो तो सारी सृष्टि की जो बुद्धि है, वह एक ही है। असल में समष्टि बुद्धि ही बुद्धि है। इस पाञ्चभौतिक देह में जो बुद्धि है, वह तो बुद्ध्याभास है। देह की परिच्छिन्नता के कारण बुद्धि परिच्छिन्न भासती है। बुद्धि परिच्छिन्न नहीं है। पृथिवी भी परिच्छिन्न नहीं है, वह आकृति की उपाधि से परिच्छिन्न भासती है। जल भी परिच्छिन्न नहीं है। आकाश भी परिच्छिन्न नहीं है। तब परिच्छिन्न कौन है? यह भ्रान्तिमूलक अभिमान ही परिच्छिन्न है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में कोई तत्त्व परिच्छिन्न नहीं है। पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। जहाँ हम अपनी बुद्धि का तिरस्कार करते हैं, वहाँ ईश्वर की बुद्धि का ही तिरस्कार होता है और जहाँ हम दूसरों की बुद्धि का तिरस्कार करते हैं वहाँ भी ईश्वर की ही बुद्धि का तिरस्कार होता है। यहाँ भी उसी की बुद्धि है, वहाँ भी उसी की बुद्धि है। बुद्धि का तिरस्कार तो, ईश्वर की बुद्धि का तिरस्कार है। उसका समन्वय करो, मेल मिलाओ। मत में भेद हो तो अमत में मत बैठ जाओ- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ केन उप. 2.3
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